पुराणों के अनुसार पृथ्वी पर मुख्य रूप से 12 ज्योतिर्लिंग हैं जो सबके सब भारत में ही अवस्थित हैं। जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर इन 12 ज्योतिर्लिंग के नाम और कथा का पाठ अथवा श्रवण करता है , वह सब पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण सिद्धियों का फल प्राप्त कर लेता है।
शिवलिंग दो प्रकार के होते हैं एक स्वयंभू और दूसरा मानव निर्मित। स्वयंभू मतलब ऐसे शिवलिंग जो मानव निर्मित न हों और स्वयं प्रकट हुए हों, इन्हीं शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंग कहा जाता है।
इन सभी 12 ज्योतिर्लिंग को एक साथ द्वादश ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है।
लोक कल्याण के लिए भगवान शिव स्वयं अपने स्वरुपभूत लिङ्ग के रूप में धरती पर विभिन्न स्थानों पर स्थित हो गए।
जिस किसी भी मनोरथ को पाने की इक्षा रखकर शिवभक्त शिव जी के 12 ज्योतिर्लिंग के नाम का पाठ करेंगे , वे इस लोक और परलोक में उस मनोरथ को अवश्य प्राप्त करेंगे।
इन 12 ज्योतिर्लिंगों का नेवैद्य (प्रसाद) यत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। ऐसा करने वाले पुरुष या स्त्री के सारे पाप उसी क्षण जलकर भस्म हो जाते हैं।
Table of Contents
12 ज्योतिर्लिंग के नाम और स्थान : लिस्ट
# | नाम | स्थान |
---|---|---|
1 | सोमनाथ | सोमनाथ, गुजरात |
2 | मल्लिकार्जुन | श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश |
3 | महाकालेश्वर | उज्जैन, मध्य प्रदेश |
4 | ओंकारेश्वर | मांधाता, मध्य प्रदेश |
5 | केदारनाथ | केदारनाथ, उत्तराखंड |
6 | भीमशंकर | भीमाशंकर, महाराष्ट्र |
7 | विश्वेश्वर | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
8 | त्र्यम्बकेश्वर | त्रिंबक, महाराष्ट्र |
9 | बैद्यनाथ | देवघर, झारखण्ड |
10 | नागेश्वर | दारुकावनम, गुजरात |
11 | रामेश्वर | रामेश्वरम, तमिल नाडु |
12 | घुश्मेश्वर | एलोरा, महाराष्ट्र |
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम् ।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशङ्करम्। वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने। सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये ।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत् ।।
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सोमनाथ ज्योतिर्लिंग / Somnath Jyotirlinga
- नाम – श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – सोमनाथ, गुजरात
यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है।
प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ किया था।
चन्द्रमा को पति रूप में पाकर दक्ष कन्यायें अत्यंत प्रसन्न हुईं और चन्द्रमा भी उन्हें पत्नी रूप में पाकर अत्यंत संतुष्ट हुए। सभी पत्नियों में चन्द्रमा को रोहिणी विशेष प्रिय थी।
इससे दूसरी स्त्रियों को बड़ा दुःख हुआ। वे सब अपने पिता दक्ष की शरण में गयीं और उनसे अपना दुःख सुनाया। उनकी बात सुनकर दक्ष भी दुखी हो गए और चन्द्रमा के पास जाकर बोले –
” कलानिधे ! तुम निर्मल कुल में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी जितनी भी पत्नियाँ हैं उन सबके प्रति तुम्हारे मन में अलग अलग भाव क्यों हैं ?
तुम किसी को अधिक और किसी को कम प्रेम क्यों करते हो ? अब तक जो किया सो किया अब आगे फिर कभी ऐसा भेदभावपूर्ण बर्ताव तुम्हें नहीं करना चाहिए। “
अपने दामाद चन्द्रमा से ऐसी प्रार्थना करके प्रजापति दक्ष घर को चले गए। उन्हें पूरा विश्वास था कि अब आगे फिर ऐसा नहीं होगा।
पर चन्द्रमा ने प्रबल भावी से विवश होकर उनकी बात नहीं मानी। वे रोहिणी में इतने आसक्त हो गए थे कि दूसरी किसी पत्नी का कभी आदर नहीं करते थे।
इस बात को सुनकर दक्ष बहुत दुखी हुए और चन्द्रमा के पास जाकर बोले –
” चन्द्रमा ! सुनो, मैं पहले अनेक बार तुमसे प्रार्थना कर चुका हूँ। फिर भी तुमने मेरी बात नहीं मानी। इसलिए आज शाप देता हूँ कि तुम्हें क्षय का रोग हो जाये। “
दक्ष के इतना कहते ही क्षणभर में ही चन्द्रमा क्षय रोग से ग्रस्त हो गए। उनके क्षीण होते ही चारों ओर हाहाकार मच गया।
चन्द्रमा ने इन्द्र आदि सभी देवताओं और ऋषियों को अपने साथ हुए घटना की सूचना दी। तब इन्द्र आदि सभी देवता और ऋषिगण ब्रह्मा जी की शरण में गए।
उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा – ” देवताओं ! जो हो गया अब वह निश्चय ही पलट नहीं सकता। अतः उसके निवारण के लिए मैं तुम्हें एक उत्तम उपाय बताता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।
चन्द्रमा सभी देवताओं के साथ प्रभास नामक शुभ क्षेत्र में जाएँ और वहाँ मृत्युंजय मंत्र का विधिपूर्वक अनुष्ठान करते हुए भगवान शिव की आराधना करें।
अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके वहाँ चन्द्रदेव नित्य तपस्या करें। इससे प्रसन्न होकर शिव उन्हें क्षयरहित कर देंगे। “
तब देवताओं तथा ऋषियों के कहने से ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार चन्द्रमा ने वहाँ 6 महीने तक निरंतर तपस्या की, मृत्युंजय मंत्र से भगवान वृषभध्वज का पूजन किया।
दस करोड़ मंत्र का जप और मृत्युंजय का ध्यान करते हुए चन्द्रमा वहाँ स्थिरचित्त होकर लगातार खड़े रहे। उन्हें तपस्या करते देख भक्तवत्सल भगवान शंकर प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए और चन्द्रमा से बोले –
” चन्द्रदेव ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन में जो भी अभीष्ट हो वह वर माँगो। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हें सभी उत्तम वर प्रदान करूँगा। “
चन्द्रमा बोले – ” देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे लिए क्या असाध्य हो सकता है। तथापि प्रभु, आप मेरे शरीर के इस क्षयरोग का निवारण कीजिये। मुझसे जाने अनजाने जो भी अपराध हुए हों उसे क्षमा कीजिये। “
शिवजी ने कहा – ” चन्द्रदेव ! एक पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी कला क्षीण हो और दूसरे पक्ष में फिर वह निरंतर बढ़ती रहे। “
इसके बाद चन्द्रमा ने भक्तिभाव से भगवान शंकर की स्तुति की।
देवताओं पर प्रसन्न हो उस क्षेत्र के माहात्म्य को बढ़ाने तथा चन्द्रमा के यश का विस्तार करने के लिए भगवान शंकर उन्हीं के नाम पर वहाँ सोमेश्वर कहलाये और सोमनाथ के नाम से संसार में विख्यात हुए।
सोमनाथ का पूजन करने से उपासक के क्षय तथा कोढ़ आदि रोगों का नाश हो जाता है। उसी स्थान पर सभी देवताओं ने सोमकुण्ड या चन्द्रकुण्ड की भी स्थापना की।
जिसमें शिव और ब्रह्मा का सदा निवास माना जाता है। सोमकुण्ड इस भूतल पर पापनाशन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। जो मनुष्य उसमें स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
क्षय आदि जो असाध्य रोग होते हैं, वे सब उस कुंड में 6 मास तक स्नान करने मात्र से नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य जिस किसी भी फल के उद्देश्य से इस उत्तम तीर्थ का सेवन करता है उस फल को अवश्य पाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग / Mallikarjuna Jyotirlinga
- नाम – श्री भ्रमराम्बा मल्लिकार्जुन मंदिर
- स्थान – श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश
यह ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीसैलम में स्थित है इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं।
एक बार विवाह को लेकर महाबली कार्तिकेय और अग्रपूज्य गणेश जी में विवाद हो गया। तब भगवान शिव और पार्वती माता ने पहले गणेश जी का विवाह करने का निर्णय लिया।
जिससे शिवपुत्र कुमार कार्तिकेय माता पिता से रुष्ट होकर क्रौञ्च पर्वत पर चले गए और शिव पार्वती के अनुरोध करने पर भी वापस नहीं लौटे तथा वहाँ से भी 12 कोस दूर चले गए।
तब शिव पार्वती ज्योतिर्मय स्वरुप धारण करके वहीँ प्रतिष्ठित हो गए। वे दोनों पुत्र स्नेह के कारण विशेष तिथियों में अपने पुत्र कुमार को देखने के लिए उनके पास जाया करते हैं।
अमावस्या के दिन भगवान शंकर स्वयं वहाँ जाते हैं और पूर्णिमा के दिन पार्वती जी वहाँ जाती हैं। उसी दिन से भगवान शिव का मल्लिकार्जुन नामक शिवलिंग संसार में प्रसिद्ध हुआ।
मल्लिका का अर्थ पार्वती है और अर्जुन भगवान शिव का ही एक नाम है। इस ज्योतिर्लिंग का जो भी दर्शन पूजन करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और मनोवांछित फल पाता है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग / Mahakaleshwar Jyotirlinga
- नाम – महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – उज्जैन, मध्य प्रदेश
यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में स्थित है। कहते हैं कि महाकाल की पूजा करने वाला व्यक्ति अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। यहाँ की भस्म आरती प्रसिद्ध है।
उज्जैन का प्राचीन नाम अवन्ति था। एक समय वहाँ वेदप्रिय नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे जो सदाचारी, वेद और शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न तथा वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में सदा तत्पर रहने वाले थे।
वे घर में प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और निरंतर शिव की पूजा में लगे रहते थे। वे ब्राह्मण देवता प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा किया करते थे।
उनके चार तेजस्वी पुत्र थे, जो सद्गुणों में अपने माता पिता के समान ही थे। उनके नाम थे – देवप्रिय , प्रियमेधा , सुकृत और सुव्रत। अपने सद्गुणों के कारण उन सभी भाइयों का यश चारों ओर फैल गया।
उसी समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक एक धर्मद्वेषी असुर ने ब्रह्मा जी से वर पाकर वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण किया।
इसके बाद उसने सेना के साथ अवन्ति के ब्राह्मणों पर आक्रमण किया। उसकी आज्ञा से दैत्यों ने अवन्ति को चारों ओर से घेर लिया।
जब नगर के सभी लोग बहुत घबरा गए तब उन शिव भक्त ब्राह्मण बंधुओं ने सबसे कहा – ” आपलोग भक्तवत्सल भगवान शंकर पर भरोसा रखें। ”
ये कहकर शिवलिंग का पूजन करके वे भगवान शिव का ध्यान करने लगे। इतने में ही सेना सहित दूषण वहाँ पहुँच गया और कहा – ” इन्हें मार डालो, बांध लो। “
वेदप्रिय के पुत्रों ने उस समय उस दैत्य की कही हुई कोई बात नहीं सुनी, क्योंकि वे भगवान शिव के ध्यान में स्थित थे।
वह दुष्टात्मा दैत्य जैसे ही उन ब्राह्मणों को मारने के लिए आगे बढ़ा वैसे ही उनके द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिंग के स्थान में बड़ी भारी आवाज के साथ एक गड्ढा प्रकट हो गया।
उस गड्ढे से तत्काल विकट रूप धारण किये हुए भगवान शिव प्रकट हो गए, जो महाकाल के नाम से विख्यात हुए।
वे दुष्टों के विनाशक तथा सत्पुरुषों के आश्रयदाता हैं। उन्होंने उन दैत्यों से कहा – ” अरे दुष्ट ! मैं तुझ जैसे पापियों के लिए महाकाल रूप में प्रकट हुआ हूँ। तुम इन ब्राह्मणों के निकट से दूर भाग जाओ। “
ऐसा कहकर महाकाल शंकर ने तत्काल दूषण को सेनासहित भस्म कर दिया। कुछ सेना उनके द्वारा मारी गयी और कुछ भाग खड़ी हुई।
जैसे सूर्य को देखकर अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान शिव को देखकर असुरों की सारी सेना अदृश्य हो गयी।
देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। उन ब्राह्मणों को आश्वासन देकर स्वयं महाकाल शिव ने प्रसन्न होकर उनसे कहा – ” तुम लोग वर माँगो “
तब सभी ब्राह्मणों ने हाथ जोड़ कर भक्तिभाव से प्रणाम करके कहा – ” हे महाकाल ! दुष्टों को दंड देनेवाले प्रभु ! आप हमें मोक्ष प्रदान करें।
आप जनसाधारण की रक्षा के लिए सदा यहीं निवास करें। शम्भो ! अपना दर्शन करने वाले मनुष्यों का आप सदा उद्धार करें। “
उन ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर उन्हें सद्गति देकर भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिए उस परम सुन्दर गड्ढे में स्थित हो गए।
उस स्थान से चारों ओर एक कोस की भूमि लिंगरूपी भगवान शिव का तीर्थ बन गया और संसार में महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। उनका दर्शन करने से सपने में भी कोई दुःख नहीं होता।
जिस किसी भी कामना को लेकर कोई उस लिंग की उपासना करता है उसे अपना मनोरथ प्राप्त होता है तथा परलोक में मोक्ष भी मिल जाता है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग / Omkareshwar Jyotirlinga
- नाम – श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – मांधाता, मध्य प्रदेश
यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश में इंदौर के पास नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित है।
एक समय देवर्षि नारद गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर भगवान शिव की आराधना की। कुछ समय के बाद नारद मुनि वहाँ से गिरिराज विंध्य पर आए।
विंध्य ने नारद मुनि का बहुत आदर के साथ पूजन किया और कहा – ” मेरे यहाँ सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है। “
विंध्य की अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुप रह गए।
यह देखकर विंध्य पर्वत ने कहा – ” मुनिवर, लगता है आप मेरे बात से सहमत नहीं हैं। आपने मेरे यहाँ कौन सी कमी देखी है ? “
नारद जी ने कहा – ” भैया ! तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखर देवताओं के लोकों में भी पहुँचे हुए हैं। “
ऐसा कहकर नारद जी वहाँ से जिस तरह आये थे उसी तरह चल दिए। पर विंध्य पर्वत ‘ मेरे जीवन को धिक्कार है ‘ ऐसा सोचता हुआ मन ही मन संतप्त हो उठा। ‘
‘ अब मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की तपस्या करूँगा ‘, ऐसा निश्चय करके वह भगवान शंकर की शरण में गया।
अभी वर्तमान में जहाँ ओंकारेश्वर स्थित है, वहाँ जाकर उसने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाई और छः मास तक निरंतर शिव के ध्यान में तत्पर हो कठिन तपस्या की।
विंध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर पार्वतीपति प्रसन्न हो गए। उन्होंने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है।
वे प्रसन्न होकर विंध्याचल से बोले – ” विंध्य ! तुम मनोवांछित वर मांगो। मैं भक्तों को अभीष्ट वर देने वाला हूँ और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। “
विंध्य बोले – ” देवेश्वर शम्भो ! आप सदा ही भक्तवत्सल हैं। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे वह बुद्धि प्रदान कीजिये जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो। ”
भगवान शंकर ने विंध्य को वह उत्तम वर दिया और कहा – ” पर्वतराज विंध्य ! तुम जैसा चाहो वैसा करो। “
उसी समय देवता और ऋषिगण वहाँ आये और शंकर जी की पूजा करके बोले – ” प्रभो ! आप यहाँ स्थिर रूप से निवास करें। ”
देवताओं की यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गए और सबको सुख देने के लिए इसे सहर्ष स्वीकार किया।
वहाँ जो एक ही ओंकारलिंग था वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। पहला ओंकारेश्वर और दूसरा अमलेश्वर के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ।
ये दोनों शिवलिंग भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले हैं। उस समय देवताओं और ऋषियों ने उन दोनों लिंगों की पूजा की और भगवान शिव को संतुष्ट करके अनेक वर प्राप्त किये।
इसके बाद देवता और ऋषिगण अपने अपने स्थान को चले गए और विंध्याचल भी अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करने लगे।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग / Kedarnath Jyotirlinga
- नाम – केदारनाथ मंदिर
- स्थान – केदारनाथ, उत्तराखंड
यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड के केदार पर्वत पर मन्दाकिनी नदी के तट पर स्थित है। द्वापर युग में पांडवों ने यहाँ तपस्या की थी।
एक समय भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ने बद्रिकाश्रम नामक तीर्थ में भगवान शिव की तपस्या की।
उन दोनों ने पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसमें स्थित होकर पूजा ग्रहण करने के लिए भगवान शम्भू से प्रार्थना की।
शिवजी भक्तों के अधीन होने के कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिव लिंग में पूजित होने के लिए आया करते थे।
जब उनके पार्थिव पूजन करते हुए बहुत दिन बीत गए, तब एक दिन परमेश्वर शिव ने प्रसन्न होकर कहा – ” मैं तुम्हारी आराधना से बहुत संतुष्ट हूँ। तुम दोनों मुझसे वर माँगो। “
उस समय उनके ऐसा कहने पर नर और नारायण ने लोकहित की कामना से कहा –
” देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो अपने स्वरुप से पूजा ग्रहण करने के लिए यहीं स्थित हो जाइये। “
उन दोनों के इस प्रकार अनुरोध करने पर कल्याणकारी महेश्वर हिमालय के उस केदारतीर्थ में स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए।
सम्पूर्ण दुःख और भय का नाश करनेवाले शम्भू लोगों का उपकार करने और भक्तों को दर्शन देने के लिए स्वयं केदारेश्वर के नाम से प्रसिद्ध होकर वहाँ रहते हैं।
वे दर्शन और पूजन करने वाले भक्तों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं। नर और नारायण के तथा केदारेश्वर शिव के रूप का दर्शन करके मनुष्य मोक्ष का भागी बनता है।
केदारतीर्थ में पहुँच कर वहाँ प्रेमपूर्वक केदारेश्वर की पूजा करके वहाँ का जल पी लेने के बाद मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता।
भीमशंकर ज्योतिर्लिंग / Bhimashankar Jyotirlinga
- नाम – श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – भीमाशंकर, महाराष्ट्र
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में पुणे के पास स्थित है।
प्राचीन काल में भीम नाम का एक महापराक्रमी राक्षस हुआ। वह सदा धर्म का नाश करता और सभी प्राणियों को दुःख देता था।
वह महाबली राक्षस कुम्भकरण के वीर्य और कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। एक दिन भीम ने अपनी माता से पुछा –
” माँ ! मेरे पिता कहाँ हैं ? तुम अकेली क्यों रहती हो ? मैं यह सब जानना चाहता हूँ। “
कर्कटी बोली – ” बेटा ! रावण के छोटे भाई कुम्भकरण तेरे पिता थे। भाई सहित उस महाबली वीर को श्रीराम ने मार डाला। मेरे पिता का नाम कर्कट और माता का नाम पुष्कसी था।
विराध मेरे पति थे, जिन्हें राम ने पहले ही मार डाला था। अपने प्रिय स्वामी के मारे जाने पर मैं अपने माता-पिता के साथ रहती थी।
एक दिन मेरे माता-पिता अगस्त्य मुनि के शिष्य सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाने के लिए गए। उन्होंने कुपित होकर मेरे माता-पिता को भस्म कर दिया।
तब से मैं अकेली होकर बड़े दुःख के साथ इस पर्वत पर रहने लगी। एक दिन महान बल पराक्रम से संपन्न कुम्भकरण जो रावण के छोटे भाई थे यहाँ आये।
उन्होंने बलात मेरे साथ समागम किया फिर मुझे छोड़कर लंका चले गए। इसके बाद तुम्हारा जन्म हुआ। तुम भी अपने पिता के समान महान बलवान और पराक्रमी हो।
अब मैं तुम्हारे सहारे ही यहाँ अपना समय व्यतीत करती हूँ। “
अपनी माता की बात सुनकर भयानक पराक्रमी भीम क्रोधित होकर विचार करने लगा कि – ‘ विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके भक्त के हाथों मारे गए।
उन्होंने विराध को भी मार डाला इस प्रकार मुझे बहुत दुःख दिया है। अगर मैं अपने पिता का पुत्र हूँ तो श्रीहरि को अवश्य पीड़ा दूँगा। ‘
ऐसा निश्चय करके उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उसके सामने प्रकट हुए और बोले –
” भीम ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो भी इक्षा हो मांग लो। “
भीम बोला – ” हे कमलासन ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा बल दीजिये जिसकी कहीं कोई तुलना न हो। “
ब्रह्मा जी ने भीम को मनोवांछित वर प्रदान किया और अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्मा जी से अभीष्ट वर पाकर भीम अपने घर पहुँचा और अपनी माता को प्रणाम करके बोला –
” माँ ! अब तुम मेरा बल देखो। मैं इन्द्र आदि देवताओं तथा उनकी सहायता करने वाले श्रीहरि का संहार कर डालूँगा। “
ऐसा कहकर परम पराक्रमी भीम ने पहले इन्द्र सहित समस्त देवताओं को पराजित किया और देवताओं की सहायता को पहुँचे श्रीहरि को भी परास्त किया।
इसके बाद उसने पृथ्वी को जीतना आरम्भ किया। सबसे पहले वह कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए गया।
सुदक्षिण भगवान शिव के परम भक्त थे और उनके ही आश्रित होकर राज्य करते थे। सुदक्षिण के साथ भीम का भयंकर युद्ध हुआ।
इस युद्ध में सुदक्षिण पराजित हुए और भीम ने उनका राज्य अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद भीम ने उस शिवभक्त राजा सुदक्षिण को कारागार में डाल दिया।
सुदक्षिण कारागार में ही एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर भगवान शिव के ध्यान-पूजन और पंचाक्षर मन्त्र के जप में अपना समय व्यतीत करने लगे।
इधर दुष्ट भीम अपनी विशाल सेना के साथ समस्त पृथ्वी को अपने वश में कर लिया। वह वेदों और शास्त्रों में वर्णित धर्म का लोप करने लगा।
तब समस्त देवता और ऋषिगण भगवान शिव के शरण में पहुँचे और प्रणाम करके उनकी स्तुति की। उनकी स्तुति से अत्यंत प्रसन्न होकर भगवान शिव बोले –
” देवगण तथा महर्षियों ! मैं प्रसन्न हूँ। वर मांगो। तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध करूँ ? “
देवता बोले – ” देवेश्वर ! आप अंतर्यामी हैं, आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है। प्रभो ! कुम्भकरण से उत्पन्न कर्कटी का बलवान पुत्र राक्षस भीम ब्रह्मा जी से वर पाकर समस्त संसार को पीड़ा दे रहा है। अतः आप इस दुखदायी राक्षस का नाश करके हम पर कृपा कीजिये। “
शम्भू ने कहा – ” देवताओं ! कामरूप देश के राजा सुदक्षिण मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं। उनसे मेरा एक संदेश कह दो। उनसे कहना कि ब्रह्माजी के वर से शक्तिशाली होकर भीम ने जो उनका तिरस्कार किया है , मैं शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस को उसका उचित दंड दूँगा। “
इसके बाद सभी देवता और ऋषिगण प्रसन्न होकर राजा सुदक्षिण के पास जाकर उनको भगवान शिव का संदेश सुनाया और अपने अपने स्थान को चले गए।
भीम के गुप्तचरों ने इस बात की सूचना उसे दी और कहा कि राजा सुदक्षिण आपके नाश के लिए कोई षड्यंत्र कर रहे हैं।
यह समाचार सुनते ही भीम कुपित होकर राजा सुदक्षिण को मारने के उद्देश्य से हाथ में नंगी तलवार लेकर कारागार में पहुँचा।
वहाँ पहुँच कर उसने राजा को बहुत सारे दुर्वचन कहे और भगवान शंकर के पार्थिव लिंग पर तलवार चलायी।
वह तलवार उस पार्थिव लिंग का स्पर्श करे इसके पहले ही वहाँ साक्षात भगवान शंकर प्रकट हो गए और बोले – ” देखो, मैं अपने भक्त की रक्षा के लिए यहाँ प्रकट हुआ हूँ। मेरा व्रत है कि मैं सदा अपने भक्त की रक्षा करूँ। “
ऐसा कहकर भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए और हुंकार मात्र से ही तत्काल भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला।
भगवान शंकर की कृपा से इन्द्र आदि समस्त देवताओं और ऋषियों को शांति मिली तथा सारे संसार की पीड़ा और दुःख का अंत हुआ।
उस समय देवताओं और ऋषियों ने भगवान शंकर की स्तुति की और कहा – ” प्रभो ! आप यहाँ लोगों को सुख देने के लिए सदा निवास करें। आपका दर्शन करने से यहाँ सबका कल्याण होगा।
आप भीमशंकर के नाम से विख्यात होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। आपका यह ज्योतिर्लिंग सदा पूजनीय और समस्त विपत्तियों का निवारण करने वाला होगा। “
उनके इस प्रकार प्रार्थना करने पर लोकहितकारी एवं भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गए।
विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग ( विश्वनाथ ) / Vishweshwar Jyotirlinga
- नाम – श्री काशी विश्वनाथ मंदिर
- स्थान – वाराणसी, उत्तर प्रदेश
यह ज्योतिर्लिंग उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित है।
अपने अद्वैत भाव में ही रमने वाले उन निर्गुण परब्रह्म परमात्मा में कभी एक से दो हो जाने की इक्षा हुई। फिर वे ही परमात्मा सगुण रूप में प्रकट हो शिव कहलाये।
वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपों में प्रकट हो गए। उनमें जो पुरुष थे, उनका नाम शिव हुआ और जो स्त्री थी, उन्हें शक्ति कहते हैं।
उन शिव और शक्ति ने स्वयं अदृश्य रह कर पुरुष और प्रकृति की रचना की। अपने माता-पिता को सामने न देखकर पुरुष और प्रकृति संशय में पड़ गए।
उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी हुई – ” तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए। फिर तुमसे सृष्टि का विस्तार होगा। “
वे पुरुष और प्रकृति बोले – ” प्रभो ! तपस्या के लिए तो कोई स्थान है ही नहीं फिर हम दोनों आपकी आज्ञा के अनुसार कहाँ स्थित होकर तप करें ? “
तब निर्गुण शिव ने पाँच कोस लंबे और चौड़े एक सुन्दर नगर का निर्माण किया। वह नगर सभी आवश्यक वस्तुओं से युक्त था। वह नगर आकाश में पुरुष के समीप आकर स्थित हो गया।
तब पुरुष (श्रीहरि) ने उस नगर में स्थित हो सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक तप किया।
उस समय उनके शरीर से श्वेत जल की अनेक धाराएँ प्रकट हुईं, जिनसे सारा आकाश व्याप्त हो गया।
उस अपार जल राशि में वह नगर डूबने लगा, तब निर्गुण शिव ने तत्काल उस नगर को अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया।
इसके बाद भगवान श्रीहरि योगनिद्रा में ध्यानस्थ हो गए और उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ फिर उस कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण आरम्भ किया।
जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण कर लिया तब भगवान शिव ने सोचा कि – ‘ इस ब्रह्माण्ड में कर्मपाश से बंधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त करेंगे ? ‘
यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशी (काशी) को इस जगत में छोड़ दिया। यह काशी नगरी कर्म बंधन का नाश करने वाली तथा मोक्षदायिनी है।
यहाँ स्वयं परमात्मा ने अविमुक्त लिंग की स्थापना की है। वह महापातकी पुरुषों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है। जिनकी कहीं भी गति नहीं है, उनके लिए काशी पुरी में ही गति है।
ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होने पर जब सारा संसार प्रलय में मग्न हो जाता है, तब भी इस काशी नगरी का नाश नहीं होता है।
उस समय भगवान शिव इसे त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्मा द्वारा पुनः नयी सृष्टि की जाती है, तब वे इसे फिर से इस भूतल पर स्थापित कर देते हैं।
कर्मों का कर्षण करने से ही इस नगरी को काशी कहते हैं। इस काशी पुरी में भगवान शिव उमा सहित सदा निवास करते हैं। यह शंकर जी की प्रिय नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।
त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग / Trimbakeshwar Jyotirlinga
- नाम – श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – त्रिंबक, महाराष्ट्र
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में नासिक के पास स्थित है।
पूर्वकाल में गौतम नाम के एक विख्यात ऋषि हुए। उनकी पत्नी का नाम अहिल्या था। दक्षिण दिशा में ब्रह्मगिरि नामक एक पर्वत है वहीं रह कर उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की थी।
एक समय वहाँ भयंकर अकाल पड़ा। पूरी धरती पर कहीं एक गीला पत्ता भी नहीं दिखाई पड़ता था तो फिर जीवन का आधार जल कहाँ मिलता।
उस समय वहाँ रहने वाले मनुष्य और वन्य जीव उस क्षेत्र को त्याग कर दूसरी जगह चले गए।
तब गौतम ऋषि ने छह महीने तक तप करके वरुण देवता को प्रसन्न किया।
गौतम ऋषि ने वरुणदेव से वृष्टि की प्रार्थना की। इस पर वरुण देवता ने कहा – ” देवताओं के विधान के विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इक्षा के अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहने वाला जल देता हूँ। तुम एक गड्ढा तैयार करो। “
उनके ऐसा कहने पर गौतम ऋषि ने एक छोटा सा गड्ढा खोदा और वरुणदेव ने उसे दिव्य जल से भर दिया और कहा –
” महामुने ! कभी क्षीण न होने वाला यह जल तुम्हारे लिए तीर्थरूप होगा और पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से इसकी ख्याति होगी। “
ऐसा कहकर महर्षि गौतम से प्रशंसित होकर वरुणदेव अंतर्ध्यान हो गए। गौतम ऋषि वहाँ उस परम दुर्लभ जल को पाकर पहले की तरह ही विधिपूर्वक नित्य पूजन आदि अन्य कर्म करने लगे।
उन्होंने वहाँ धान, जौ आदि अनेक प्रकार के अन्न और तरह तरह के फल-फूल के वृक्ष लगा दिए। देखते देखते वे सब लहलहा उठे और वह क्षेत्र अत्यंत सुन्दर हो गया।
यह समाचार सुनकर सहस्त्रों ऋषि-मुनि सपरिवार वहाँ आकर रहने लगे। इसके साथ ही अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और वन्य जीव भी वहाँ आ गए।
वरुणदेव के दिए अक्षय जल के प्रभाव से उस वन में सब ओर आनंद छा गया।
एक बार वहाँ गौतम मुनि के आश्रम में आकर बसे हुए ब्राह्मणों की स्त्रियाँ उस पवित्र जल के विषय पर अहिल्या से नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियों को उकसाया।
इसके बाद उन ब्राह्मणों ने गौतम मुनि का अनिष्ट करने के लिए गणेश जी की आराधना की। भक्त पराधीन गणेश जी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा।
तब उन ब्राह्मणों ने गणेश जी से कहा – ” भगवन ! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसा कोई उपाय कीजिये जिससे गौतम मुनि को यह क्षेत्र छोड़ कर जाना पड़े। “
गणेश जी ने कहा – ” ऋषियों ! तुम सब लोग ध्यान से मेरी बात सुनो। इस समय तुम उचित कार्य नहीं कर रहे हो। बिना किसी अपराध के उन पर क्रोध करने से तुम्हारी ही हानि होगी।
जिन्होंने पहले उपकार किया हो, उन्हें यदि दुःख दिया जाये तो वह अपने लिए हितकारक नहीं होता।
पहले अकाल के कारण जब तुम लोगों को दुःख भोगना पड़ा था, तब महर्षि गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम्हें सुख दिया। परन्तु इस समय तुम सब लोग उन्हें दुःख देना चाहते हो।
यह किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। इसलिए तुम लोग कोई दूसरा वर माँगो। “
यद्यपि गणेश भगवान ने ब्राह्मणों को हितकर उपदेश दिया पर उन्होंने गणेश जी की बात नहीं मानी। तब भक्तों के अधीन होने के कारण गणेश जी ने उन ब्राह्मणों से कहा –
” तुम लोगों ने जिस कार्य के लिए प्रार्थना की है, उसे मैं अवश्य करूँगा। आगे जो होनहार होगा, वह होकर रहेगा। “
ऐसा कह कर वे अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों के बाद गणेश जी एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके गौतम ऋषि के धान और जौ के खेतों के पास पहुँचे।
वह गौ अपनी दुर्बलता के कारण काँपती हुई उन खेतों में जाकर चरने लगी। उसी समय दैववश गौतम जी वहाँ आ गए।
अपने दयालु स्वभाव के कारण वे मुट्ठी भर तिनके लेकर उन्हीं से उस गाय को हाँकने लगे। उन तिनकों का स्पर्श होते ही वह गौ पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसी क्षण मर गयी।
वे द्वेषी ब्राह्मण और उनकी दुष्ट स्त्रियाँ वहीं छिप कर सब कुछ देख रहे थे। उस गाय के मरते ही वे सब वहाँ पहुँच गए और कहने लगे –
” हे भगवान ! गौतम ऋषि ने यह क्या कर डाला ? एक ब्राह्मण होकर इन्होनें गौ हत्या का पाप किया। ”
गौतम मुनि आश्चर्यचकित होकर अहिल्या को बुलाकर कहने लगे – ” देवी ! यह क्या हुआ, कैसे हुआ, कुछ पता नहीं। लगता है परमेश्वर मुझ पर कुपित हो गए हैं। अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? मुझे गौ हत्या का पाप लग गया। “
इधर वे ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ विभिन्न प्रकार के दुर्वचनों के द्वारा गौतम और अहिल्या को पीड़ित करने लगे।
ब्राह्मण बोले – ” अब तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाना चाहिए। यहाँ से जाओ। जब तक तुम इस स्थान में रहोगे तब तक अग्निदेव और पितर हमारे पूजा तर्पण को स्वीकार नहीं करेंगे।
इसलिए तुम जल्दी से जल्दी परिवार सहित यहाँ से किसी अन्य स्थान पर चले जाओ। “
यह सुनकर गौतम ऋषि तत्काल सपरिवार उस स्थान से निकल गए और उन सबकी आज्ञा से एक कोस दूर जाकर अपने लिए आश्रम बनाया।
उन ब्राह्मणों ने वहाँ जाकर गौतम ऋषि से कहा – ” जब तक तुम गौ हत्या का प्रायश्चित नहीं कर लेते तब तक तुम्हें यज्ञ आदि किसी भी वैदिक अनुष्ठान का अधिकार नहीं रह गया है। “
यह सुनकर गौतम मुनि ने उनसे प्रायश्चित का मार्ग पुछा।
तब उन ब्राह्मणों ने कहा – ” गौतम ! तुम एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव की आराधना करो। फिर गंगा में स्नान करके ब्रह्मगिरि पर्वत की ग्यारह बार परिक्रमा करने से तुम्हारा उद्धार होगा। ”
गौतम मुनि ने उन ब्राह्मणों की बात मान ली और पार्थिव लिंगों का निर्माण करके शिव आराधना करने लगे।
इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर गौतम ऋषि के आराधना से संतुष्ट होकर भगवान शिव वहाँ माता पार्वती और अपने पार्षद गणों के साथ प्रकट हो गए और गौतम मुनि से कहा –
” महामुने ! मैं तुम्हारी उत्तम भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो। “
उस समय शिव जी के सुन्दर रूप को देख कर आनंदित हुए गौतम ने भक्तिभाव से शंकर जी को प्रणाम करके उनकी स्तुति की, फिर दोनों हाथ जोड़कर बोले – ” देव ! मुझे निष्पाप कर दीजिये। “
शिव जी ने कहा – ” मुने ! तुम धन्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल किया है। जिन दुरात्माओं ने तुम पर अत्याचार किया है, वे ही पापी और दुराचारी हैं। वे सब के सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता। “
महादेव जी की बात सुनकर महर्षि गौतम बड़े विस्मित हुए और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके कहा –
” महेश्वर ! उन ऋषियों ने तो मेरा बहुत उपकार किया है। यदि उन्होंने मेरे साथ ऐसा व्यवहार न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे प्राप्त होता ? “
महर्षि गौतम की बात सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और कहा – ” विप्रवर ! तुम धन्य हो और सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो। “
गौतम बोले – ” नाथ ! यदि आप प्रसन्न हैं तो लोक कल्याण के लिए मुझे गंगा प्रदान कीजिये। “
तब शिव जी की आज्ञा से गंगा एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण करके वहाँ खड़ी हो गयी।
गौतम मुनि ने गंगा माता को प्रणाम करके कहा – ” गंगे ! तुम सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने वाली हो। इसलिए नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र करो। “
इस पर शिव जी ने गंगा से कहा – ” देवी ! तुम गौतम मुनि को पवित्र करो और तुरंत वापस न जाकर वैवस्वत मनु के अट्ठाईसवें कलियुग तक यहीं रहो। “
गंगा ने कहा – ” महेश्वर ! अम्बिका तथा गणों के साथ आप भी यहाँ रहें, तभी मैं यहाँ रहूँगी। “
गंगा जी की बात सुनकर भगवान शिव बोले – ” गंगे ! तुम धन्य हो। तुम्हारे कथनानुसार मैं भी यहाँ रहूँगा। “
इस प्रकार महर्षि गौतम की प्रार्थना पर भगवान शंकर और नदियों में श्रेष्ठ गंगा वहाँ स्थित हो गए। वहाँ की गंगा, गौतमी ( गोदावरी ) नाम से विख्यात हुई और भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर कहलाया।
उस दिन से लेकर जब जब बृहस्पति सिंह राशि में स्थित होते हैं, तब तब सभी तीर्थ और देवतागण गौतमी के तट पर वास करते हैं।
वे सब जब तक गौतमी के किनारे रहते हैं, तब तक अपने स्थान पर उनका कोई फल नहीं होता। जब वे अपने स्थान पर लौटते हैं तभी वहाँ इनके सेवन का फल मिलता है।
यह त्र्यम्बक नाम से प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गौतमी के तट पर स्थित है और महान पातकों का नाश करने वाला है। जो भक्तिभाव से इस त्र्यम्बक लिंग का दर्शन और पूजन करता है वह समस्त अभीष्टों को प्राप्त करता है।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग / Baidyanath Jyotirlinga
- नाम – बाबा बैद्यनाथ मंदिर
- स्थान – देवघर, झारखण्ड
यह ज्योतिर्लिंग वर्तमान झारखण्ड के देवघर में स्थित है।
एक समय राक्षसराज रावण ने कैलाश पर जाकर अत्यंत भक्तिभाव के साथ भगवान शिव की आराधना की।
कुछ समय तक आराधना करने पर जब महादेव प्रसन्न नहीं हुए तब वह और भी उग्र तप करने लगा।
वह कैलाश पर्वत के पास स्थित वन में जाकर एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर उसमें अग्नि स्थापित करके वहीं बैठकर हवन और यज्ञ करने लगा।
ग्रीष्म ऋतु में वह पाँच अग्नियों के बीच बैठता, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में सोता और शीतकाल में जल के भीतर खड़ा रहता। इस तरह तीन प्रकार से उसकी कठोर तपस्या निरंतर चलती रही।
तब एक दिन भक्तवत्सल भगवान शंकर संतुष्ट होकर उसके सामने प्रकट हो गए और रावण को उसकी इक्षा के अनुसार अनुपम और उत्तम बल प्रदान किया।
भगवान शिव का कृपा प्रसाद पाकर रावण ने नतमस्तक हो दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहा –
” देवेश्वर ! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपको अपने साथ लंका ले जाना चाहता हूँ। आप मेरे इस मनोरथ को सफल कीजिये। मैं आपकी शरण में आया हूँ। “
रावण के ऐसा कहने पर भगवान शिव बड़े संकट में पड़ गए और अनमने होकर बोले – ” राक्षसराज ! मेरी बात ध्यान से सुनो। तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभाव से अपने घर को ले जाओ।
पर अगर मार्ग में तुमने इसे कहीं भी भूमि पर रखा तो यह वहीँ सुस्थिर हो जायेगा। अब तुम्हारी जैसी इक्षा हो वैसा करो। “
भगवान शंकर के ऐसा कहने पर रावण ने उनकी आज्ञा लेकर वह शिवलिंग अपने साथ लेकर लंका को प्रस्थान किया। परन्तु मार्ग में भगवान शिव की माया से उसे मूत्रोत्सर्ग की इक्षा हुई।
पुलत्स्यनन्दन रावण अत्यंत सामर्थ्यवान होने पर भी मूत्र के वेग को नहीं रोक सका।
इसी समय वहाँ आस-पास एक ग्वाले को देखकर उसने प्रार्थना करके वह शिवलिंग उसके हाथ में थमा दिया और स्वयं मूत्रत्याग के लिए बैठ गया।
एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह ग्वाला उस शिवलिंग के भार को सहन नहीं कर पाया और उसे पृथ्वी पर रख दिया। फिर वह ज्योतिर्मय शिवलिंग वहीँ स्थित हो गया।
वह शिवलिंग जब सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए वहीं स्थित हो गया तब रावण निराश होकर अपने घर चला गया।
जब इन्द्र आदि देवताओं और ऋषि मुनियों ने यह समाचार सुना तो वे सब वहाँ आये और बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवजी का विशेष पूजन किया।
उन्होंने उस शिवलिंग की विधिवत स्थापना की और उसका नाम वैद्यनाथ रखकर उसकी वंदना करके अपने-अपने स्थान को चले गए।
इस दिव्य एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग का दर्शन एवं पूजन सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाला और समस्त पापराशि को हर लेने वाला है। यह सत्पुरुषों को भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग / Nageshwar Jyotirlinga
- नाम – नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
- स्थान – दारुकावनम, गुजरात
यह ज्योतिर्लिंग गुजरात में द्वारका के पास स्थित है।
एक समय दारुका नाम की एक महा बलशाली राक्षसी हुई जिसे माता पार्वती से वरदान पाकर बहुत अहंकार हो गया था।
पश्चिम समुद्र तट पर उसका एक वन था जो सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा रहता था। उस वन का विस्तार 16 योजन था।
दारुका अपने विलास के लिए जहाँ जाती थी, वह वन समस्त भूमि, वृक्षों तथा अन्य सभी वस्तुओं समेत वहीं चला जाता था। देवी पार्वती ने उस वन की रक्षा का भार दारुका को सौंप दिया था।
दारुका अपने पति के साथ इक्षानुसार उस वन में विचरण करती थी। उसके पति का नाम दारुक था जो अत्यंत शक्तिशाली था। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुका के साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था।
उसने बहुत से राक्षसों को साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषों का संहार मचा रखा था। वह सदा यज्ञ और धर्म का नाश करता था। उससे पीड़ित हुई प्रजा ने महर्षि और्व की शरण में जाकर उनको अपना दुःख सुनाया।
और्व मुनि ने शरणागतों की रक्षा के लिए राक्षसों को यह श्राप दिया कि – ‘ ये राक्षस यदि पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। ‘
देवताओं ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दुविधा में पड़ गए यदि वे युद्ध में देवताओं को मारते तो मुनि के शाप से स्वयं मर जाते और नहीं मारते तो पराजित हो जाते।
इस अवस्था में राक्षसी दारुका ने कहा – ” माता भवानी के वरदान से मैं इस सारे वन को जहाँ चाहूँ ले जा सकती हूँ। ”
यह कहकर वह समस्त वन को साथ ले जाकर समुद्र में जा बसी। राक्षस लोग पृथ्वी से हटकर जल में निर्भय होकर रहने लगे और वहाँ के प्राणियों को पीड़ा देने लगे।
एक बार बहुत सी नावें उधर से गुजरी जो मनुष्यों से भरी थीं। वे सभी वैश्यगण व्यापार के उद्देश्य से परदेश जा रहे थे।
राक्षसों ने उन सब को पकड़ लिया और बेड़ियों से बांधकर कारागार में डाल दिया और उनको विभिन्न प्रकार से कष्ट देने लगे।
उनमें सुप्रिय नाम का एक प्रसिद्ध वैश्य था जो उस दल का मुखिया था। वह बड़ा सदाचारी, भस्म-रुद्राक्षधारी तथा भगवान शिव का परम भक्त था।
वह बड़े प्रेम से भगवान शिव का ध्यान और उनके नामों का जप करने लगा। सुप्रिय ने कहा – ” देवेश्वर शंकर ! मेरी रक्षा कीजिये। कल्याणकारी त्रिलोकीनाथ ! दुष्टहन्ता भक्तवत्सल शिव !
हमें इन दुष्टों से बचाइए। देव ! आप ही मेरे सर्वस्व हैं। प्रभो ! मैं आपका हूँ, आपके अधीन हूँ और आप ही मेरे जीवन एवं प्राण हैं। “
सुप्रिय के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान शंकर एक विवर से प्रकट हो गए। तब सुप्रिय ने उत्तम प्रकार से भगवान शिव की स्तुति एवं पूजन किया।
उसके पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने पाशुपतास्त्र लेकर सभी राक्षसों का तत्काल संहार कर दिया और अपने भक्त सुप्रिय की रक्षा की।
इसके बाद भगवान शिव ने उस वन को यह वर दिया कि – ‘ आज से इस वन में श्रेष्ठ मुनि निवास करें और तमोगुणी राक्षस इसमें कभी न रहें। शिवधर्म के उपदेशक और प्रवर्तक लोग इसमें सदा निवास करें। ‘
इसी समय राक्षसी दारुका ने दीन भाव से देवी पार्वती की स्तुति की। उसकी प्रार्थना से पार्वती माता प्रसन्न हो गयीं और दारुका से बोली – ” बता, तेरा क्या कार्य करूँ ? “
दारुका ने कहा – ” माता, मेरे वंश की रक्षा कीजिये। “
पार्वती माता बोली – ” मैं सच कहती हूँ, तेरे कुल की रक्षा करूँगी। “
ऐसा कहकर माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा – ” नाथ ! मैं आपकी ही हूँ और आपके ही आश्रय में रहती हूँ अतः मेरी बात को भी सत्य कीजिये।
यह राक्षसी दारुका मेरी भक्त है और राक्षसियों में बलिष्ठ है। अतः यही राक्षसों के राज्य का शासन करे। ये राक्षस पत्नियां जिन पुत्रों को पैदा करेंगी वे सब मिलकर इस वन में निवास करें, ऐसी मेरी इक्षा है। “
शिव बोले – ” प्रिये ! यदि तुम्हारी ऐसी इक्षा है तो ऐसा ही हो। मैं भक्तों का पालन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। “
इस प्रकार बड़ी बड़ी लीलाएँ करने वाले वे भगवान शिव और माता पार्वती वहाँ स्थित हो गए। ज्योतिर्लिंग स्वरुप महादेव वहाँ नागेश्वर के नाम से विख्यात हुए।
वे तीनों लोकों की सम्पूर्ण कामनाओं को सदा पूर्ण करने वाले और महापातकों का नाश करने वाले हैं।
रामेश्वर ज्योतिर्लिंग / Rameshwar Jyotirlinga
- नाम – रामनाथस्वामी मंदिर
- स्थान – रामेश्वरम, तमिल नाडु
यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित है। यहाँ लंका पर विजय पाने के लिए स्वयं भगवान राम ने पूजा किया था।
भगवान विष्णु के रामावतार में जब रावण सीताजी का हरण करके लंका ले गया, तब सुग्रीव के साथ अठारह पद्म वानर सेना लेकर श्रीराम समुद्र तट पर आये।
वहाँ वे विचार करने लगे कि हम किस प्रकार इस समुद्र को पार करेंगे और किस प्रकार रावण को जीतेंगे। इतने में ही श्रीराम को प्यास लगी। उन्होंने जल माँगा और वानर मीठा जल ले आये।
प्रभु श्रीराम ने प्रसन्न होकर वह जल ले लिया। तभी उन्हें स्मरण हुआ कि – ‘ मैंने अपने स्वामी भगवान शंकर का दर्शन तो किया ही नहीं। फिर यह जल मैं कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? ‘
इस प्रकार विचार कर उन्होंने उस जल को नहीं पिया। इसके बाद उन्होंने भगवान शिव का पार्थिव पूजन किया।
आवाहन आदि सोलह उपचारों का पालन करके उन्होंने विधिपूर्वक बड़े प्रेम से शंकर जी की पूजा अर्चना की।
इसके बाद दिव्य स्तोत्रों के द्वारा यत्नपूर्वक भगवान शंकर को संतुष्ट करके श्रीराम ने उनसे प्रार्थना की।
श्रीराम बोले – ” उत्तम व्रत का पालन करने वाले मेरे स्वामी महेश्वर ! आप मेरी सहायता कीजिये। आपके सहयोग के बिना मेरे कार्य की सिद्धि अत्यंत कठिन है। रावण भी आपका ही भक्त है।
वह सबके लिए सर्वथा दुर्जय और महावीर है पर आपके दिए हुए वरदान के कारण सदा अहंकार से भरा रहता है और संसार को कष्ट देता है। इस प्रकार विचार कर आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिए। ”
श्रीराम के पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शंकर माता पार्वती तथा पार्षदगणों के साथ निर्मल रूप धारण करके वहाँ प्रकट हो गए।
श्रीराम की भक्ति से संतुष्ट होकर महेश्वर ने उनसे कहा – ” श्रीराम ! तुम्हारा कल्याण हो, वर माँगो। “
श्रीराम ने भगवान शिव का पूजन और विभिन्न प्रकार से स्तुति करके उनसे रावण के साथ होने वाले युद्ध में अपने लिए विजय की प्रार्थना की।
तब भगवान शिव ने श्रीराम को युद्ध की आज्ञा और रावण पर विजय का वरदान दिया। भगवान शिव से विजय का वरदान पाकर नतमस्तक हो दोनों हाथ जोड़कर श्रीराम बोले –
” मेरे स्वामी शंकर ! यदि आप संतुष्ट हैं तो संसार के कल्याण के लिए आप सदा यहाँ निवास करें। “
श्रीराम के ऐसा कहने पर भगवान शिव वहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए और तीनों लोकों में रामेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भगवान रामेश्वर सदा भोग और मोक्ष देनेवाले तथा भक्तों की इक्षा पूर्ण करने वाले हैं।
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग / Ghushmeshwar Jyotirlinga
- नाम – घृष्णेश्वर मंदिर
- स्थान – एलोरा, महाराष्ट्र
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित है। 12 ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है और यहाँ दर्शन करके ही ज्योतिर्लिंगों की यात्रा पूरी होती है।
दक्षिण में देवगिरि नामक पर्वत के निकट भरद्वाज कुल में उत्पन्न सुधर्मा नाम के एक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण रहते थे।
उनकी प्रिय पत्नी का नाम सुदेहा था, वह सदा शिवधर्म के पालन में तत्पर रहती थी। वह गृहकार्य में निपुण और पतिव्रता स्त्री थी।
द्विजश्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं और अतिथियों के पूजक थे। वे सदाचारी और वेद – शास्त्र के मर्मज्ञ थे। वे सदा शिव सम्बन्धी पूजनादि कार्यों में ही लगे रहते थे।
यह सब कुछ होने पर भी उनके कोई पुत्र नहीं था जिससे उनकी पत्नी बहुत दुखी रहती थी। तब उस ब्राह्मणी ने अत्यंत दुखी होकर हठपूर्वक अपनी बहन घुश्मा से पति का दूसरा विवाह करा दिया।
विवाह से पहले सुधर्मा ने सुदेहा को समझाया कि ‘ इस समय तो बहन के प्रति तुम्हारा प्रेम है पर जब इसके पुत्र हो जायेगा तब तुम इससे स्पर्धा करने लगोगी। ‘
यह सुनकर सुदेहा ने सब प्रकार से अपने पति को विश्वास दिलाया कि मैं कभी भी अपनी बहन से डाह नहीं करूँगी।
विवाह हो जाने पर घुश्मा दासी की भाँति बड़ी बहन की सेवा करने लगी। सुदेहा भी उसे बहुत प्यार करती थी।
घुश्मा अपनी शिवभक्ता बहन की आज्ञा से नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर विधिवत पूजा करने लगी। पूजा करके वह नजदीक के तालाब में उनका विसर्जन कर देती थी।
शंकर जी की कृपा से उसको एक सुन्दर, सौभाग्यवान और सद्गुण संपन्न पुत्र हुआ। इससे घुश्मा का कुछ मान बढ़ा और यह देखकर सुदेहा के मन में डाह उत्पन्न हो गया।
समय आने पर घुश्मा के पुत्र का विवाह हुआ और पुत्रवधु घर में आ गयी। अब तो सुदेहा घुश्मा से और भी जलने लगी।
उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और एक दिन उसने रात में सोते हुए पुत्र को छुरे से मार कर उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए और कटे हुए अंगों को उसी तालाब में ले जाकर डाल दिया जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंगों का विसर्जन करती थी।
घुश्मा के पुत्र के अंगों को उस तालाब में फेंककर वह लौट आयी और घर में सुखपूर्वक सो गयी।
घुश्मा सबेरे उठकर प्रतिदिन का पूजनादि कर्म करने लगी। सुधर्मा स्वयं भी नित्यकर्म में लग गए।
सुदेहा भी उठकर बड़े आनंद से घर के काम काज करने लगी क्योंकि उसके ह्रदय में पहले जो ईर्ष्या की आग जलती थी वह अब बुझ गयी थी।
प्रातःकाल उठकर जब बहु ने पति की शय्या को देखा तो वह खून से भीगी दिखायी दी और वहाँ शरीर के कुछ अंग भी दिखाई दिए, इससे उसको बड़ा दुःख हुआ।
वह तुरंत घुश्मा के पास गयी और कहा – ” माता ! आपके पुत्र कहाँ गए ? उनकी शय्या रक्त से भीगी हुई है। किसने यह क्रूर कर्म किया है ? “
यह कहकर घुश्मा की बहु करुण विलाप करती हुई रोने लगी। सुदेहा भी उस समय रोने का नाटक करने लगी पर मन ही मन वह हर्ष से भरी हुई थी।
पर उस परिस्थिति में भी घुश्मा अपने नित्य पार्थिव पूजन व्रत से विचलित नहीं हुई। जब तक नित्य पूजन का नियम पूरा नहीं हुआ तब तक उसे किसी दूसरी बात की चिंता नहीं हुई।
दोपहर को पूजन समाप्त होने पर घुश्मा ने अपने पुत्र की भयंकर शय्या पर दृष्टिपात किया।
वह सोचने लगी – ‘ जिन्होंने यह बेटा दिया था, वे ही इसकी रक्षा करेंगे। वे काल के भी काल हैं और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। मेरे चिंता करने से क्या होगा। ‘
इस तरह विचार करते हुए उसने भगवान शिव के भरोसे धैर्य धारण किया। वह अपने नियम के अनुसार पार्थिव शिवलिंगों को लेकर शिव के नामों का उच्चारण करती हुई उस तालाब के किनारे गयी।
उन पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर जब वह लौटने लगी तो उसे अपना पुत्र उसी तालाब के किनारे खड़ा दिखाई दिया।
उस समय अपने पुत्र को जीवित देखकर घुश्मा को न तो हर्ष हुआ और न ही विषाद। वह शांतचित्त से यह सब देख ही रही थी कि तभी ज्योतिस्वरूप महेश्वर शिव उस पर संतुष्ट होकर वहाँ प्रकट हो गए।
शिव बोले – ” सुमुखि ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। वर माँगो। तुम्हारी दुष्टा सौत ने इस बच्चे को मार डाला था। अतः मैं उसे इस अपराध का दंड दूँगा। “
तब घुश्मा ने शिव जी को प्रणाम करके यह वर माँगा – ” नाथ ! सुदेहा मेरी बड़ी बहन है अतः आपको उसकी रक्षा करनी चाहिए। “
शिव बोले – ” उसने तो तुम्हारा बड़ा भारी अपकार किया है तो तुम उसका उपकार क्यों करना चाहती हो ? दुष्ट कर्म करने वाली सुदेहा तो मार डालने के ही योग्य है। “
घुश्मा ने कहा – ” देव ! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के पूर्वसंचित पापराशि भस्म हो जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है।
जो अपकार करने वालों का भी उपकार करता है उसके संसर्ग से पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा मैंने सुना है। मैं किसी भी प्राणी का अहित नहीं चाहती फिर वह तो मेरी बहन है। “
घुश्मा के ऐसा कहने पर दयासिन्धु महेश्वर अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा – ” घुश्मे ! तुम कोई और भी वर माँगो क्योंकि तुम्हारी भक्ति और विकारशून्य स्वभाव से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। “
भगवान शिव की बात सुनकर घुश्मा बोली – ” प्रभो ! यदि आप वर देना चाहते हैं तो लोगों की रक्षा के लिए सदा यहाँ निवास कीजिये और मेरे नाम से ही आप की ख्याति हो। “
तब महेश्वर शिव ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा – ” मैं तुम्हारे ही नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ सदा यहाँ निवास करूँगा और सबके लिए सुखदायक होऊँगा।
मेरा शुभ ज्योतिर्लिंग घुश्मेश नाम से प्रसिद्ध हो। यह सरोवर तीनों लोक में शिवालय नाम से प्रसिद्ध हो। इस सरोवर का दर्शन सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाला हो।
सुव्रते ! तुम्हारे वंश में होनेवाली एक सौ एक पीढ़ियों तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न होंगे। वे सब के सब सुंदरी स्त्री, उत्तम धन और पूर्ण आयु से संपन्न होंगे।
वे चतुर, विद्वान, उदार और मोक्ष पाने के उत्तराधिकारी होंगे। तुम्हारे वंश का विस्तार बहुत शोभादायक होगा। “
ऐसा कहकर भगवान शिव वहाँ घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए। इस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन सुख समृद्धि की वृद्धि करने वाला है।
ये सभी ज्योतिर्लिंग सम्पूर्ण कामनाओं के पूरक तथा भोग और मोक्ष देने वाले हैं। जो मनुष्य इन 12 ज्योतिर्लिंग के नाम और कथा को सुनता या पढ़ता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा भोग और मोक्ष पाता है।
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