जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होता है, उस क्रिया को संस्कार कहते हैं। पुराणों में भी विविध संस्कारों का उल्लेख है पर उनमें मुख्य तथा आवश्यक 16 संस्कार माने गए हैं।
इनमें से कुछ संस्कार जन्म के पहले और कुछ जन्म के बाद युवावस्था तक किये जाते हैं।
संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारम्भ से ही कुछ मतभेद रहा है। गौतम स्मृति में 48 संस्कार बताये गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार निर्दिष्ट किये हैं। महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है।
जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है। वे मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के द्योतक हैं। संस्कार के कारण मनुष्य को योग्य एवं उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
जब तक किसी पदार्थ का संस्कार नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन रहता है।
जिस प्रकार खान से निकला हुआ सोना अत्यन्त मलिन होता है, आग में तपाकर उसे शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की शास्त्रीय व्यवस्था दी है।
आचार विचार और संस्कार का पारस्परिक सम्बन्ध है, इसीलिए सनातन हिन्दू संस्कृति में संस्कारों पर विशेष बल दिया गया है।
महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित प्रमुख सोलह संस्कार इस प्रकार हैं।
Table of Contents
16 संस्कारों के नाम : लिस्ट
1. गर्भाधान | 9. कर्णवेध |
2. पुंसवन | 10. उपनयन |
3. सीमन्तोन्नयन | 11. वेदारम्भ |
4. जातकर्म | 12. केशान्त |
5. नामकरण | 13. समावर्तन |
6. निष्क्रमण | 14. विवाह |
7. अन्नप्राशन | 15. विवाहाग्नि परिग्रह |
8. चूड़ाकरण | 16. त्रेताग्नि संग्रह |
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।
व्यासस्मृति 1 | 13 | 15
नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।
केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।
आइये संक्षेप में जानते हैं इन 16 संस्कारों का मतलब और इनका महत्व।
गर्भाधान संस्कार
विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश होता है। यही गर्भाधान संस्कार का फल है।
गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की मानसिक अवस्था जैसी होती है अथवा जैसा उनका भाव होता है, वे भाव संतान में भी प्रकट होते हैं।
अतः शुभ मुहूर्त में पवित्र होकर शुभ मन्त्रों से प्रार्थना करके ही गर्भाधान करना चाहिए।
पुंसवन संस्कार
पुत्र की प्राप्ति के लिये शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान है। पुम् नामक नरक से जो रक्षा करता है, उसे पुत्र कहा जाता है।
इस वचन के आधार पर नरक से बचने के लिये लोग पुत्र प्राप्ति की कामना करते हैं।
मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान मिलता है। जब गर्भ दो-तीन महीने का होता है तभी इस संस्कार को किया जाता है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार
गर्भ के छठे या आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है।
सामान्यतः गर्भ में चार मास के बाद बालक के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि प्रकट हो जाते हैं। हृदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है इसलिए उसमें इक्षाओं का उदय होने लगता है।
गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतनाशक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
इस समय गर्भ शिक्षण योग्य होता है। महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था।
अतः माता-पिता को चाहिए कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें।
जातकर्म संस्कार
इस संस्कार से गर्भस्राव जन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है। बालक का जन्म होते ही यह संस्कार करने का विधान है।
इसमें बालक को सोने के चम्मच से असमान मात्रा में मधु तथा घी चटाया जाता है। इसमें सोना त्रिदोषनाशक है। घी आयुवर्धक तथा वात-पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है।
इन तीनों का सम्मिश्रण आयु, लावण्य और मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला होता है।
इस संस्कार में माँ के स्तनों को धोकर दूध पिलाने का विधान किया गया है। माँ के रक्त और मांस से उत्पन्न बालक के लिये माँ का दूध ही सर्वाधिक पोषक पदार्थ है।
नामकरण संस्कार
इस संस्कार का फल आयु तथा तेज की वृद्धि एवं लौकिक व्यवहार की सिद्धि बताया गया है।
जन्म से ग्यारहवें दिन या सौवें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण संस्कार करने का विधान है।
पुरुष और स्त्रियों का नाम किस प्रकार का रखा जाये, इसके बारे में पुराणों में उल्लेख है।
निष्क्रमण संस्कार
इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है। यह संस्कार बालक के चौथे या छठे मास में होता है।
सूर्य तथा चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है।
बालक का पिता इस संस्कार के अन्तर्गत आकाश आदि पञ्चभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बालक के कल्याण की कामना करता है।
अन्नप्राशन संस्कार
इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण जन्य जो दोष बालक में आ जाते हैं, उनका नाश हो जाता है।
जब बालक 6-7 मास का होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है।
शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चाँदी के चम्मच से बालक को खीर आदि पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।
अथर्ववेद 8 | 2 | 18
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः॥
अर्थ – हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा नाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।
चूड़ाकरण संस्कार
इसका फल बल, आयु तथा तेज की वृद्धि करना है। इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार करने का विधान है।
मस्तक के भीतर ऊपर की ओर जहाँ पर बालों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है।
उस स्थान को ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है, इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखने का विधान किया है।
शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराना चाहिए। इसके बाद सिर में दही-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिए।
नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥
यजुर्वेद 3 | 63
अर्थ – हे बालक ! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्न के ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिये, ऐश्वर्य वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिये तेरा चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ।
कर्णवेध संस्कार
पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिये यह संस्कार किया जाता है।
इस संस्कार को छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार संपन्न करना चाहिये।
ब्राह्मण और वैश्य का रजत शलाका (सूई) से, क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका द्वारा कान छेदने का विधान है पर वैभवशाली पुरुषों को स्वर्ण शलाका से ही यह क्रिया सम्पन्न करानी चाहिये।
बालक के प्रथम दाहिने कान में फिर बायें कान में सूई से छेद करे। बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कान के वेध के साथ बायीं नासिका के वेध का भी विधान मिलता है।
बालकों को कुण्डल आदि तथा बालिका को कर्णाभूषण आदि पहनाने चाहिये।
उपनयन संस्कार
इस संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती है। शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँ तक कहा गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है।
विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है। इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यन्तिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री जप आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है।
वेदारम्भ संस्कार
उपनयन हो जाने पर बालक का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता है। ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान है।
इस क्रिया से बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदि में विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता।
गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्चात वेदारम्भ (विद्यारम्भ) में प्रविष्ट होने का विधान है।
तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का प्रयोजन है। यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम संस्कार है।
केशान्त संस्कार
वेदारम्भ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश-दाढ़ी, मुंज, मेखला आदि धारण करने का विधान है।
जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त संस्कार सम्पन्न होता है।
इस संस्कार में भी आरम्भ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर यज्ञादि के सभी अङ्गभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है।
इसके बाद दाढ़ी बनाने की क्रिया सम्पन्न की जाती है। यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः 16 वर्ष में होता है।
समावर्तन संस्कार
समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है, मतलब लौटता है।
इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन संस्कार का फल है।
वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिए यह वेदस्नान संस्कार भी कहलाता है।
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥
ऋग्वेद 1 | 25 | 21
अर्थ – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्व भाग के मूँज, उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें।
विवाह संस्कार
पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। विवाह का यही फल बताया गया है।
विवाह संस्कार का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारी होकर विवाह करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं प्रदान की है।
इसके लिये कुछ नियम और विधान बने हैं, जिससे उनकी स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण होता है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि को साक्षी बनाकर करने का विधान है।
भारतीय संस्कृति में यह दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर तक माना गया है।
विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार
विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ नामक अग्नि कहलाती है। इसी को विवाहाग्नि भी कहा जाता है।
उस अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती हैं।
विवाह के बाद जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिए।
यह नित्य हवन विधि द्विजाति के लिये आवश्यक बताई गयी है। सभी वैश्वदेवादि स्मार्त कर्म तथा पाक यज्ञ इसी अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं।
त्रेताग्नि संग्रह संस्कार
विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार के परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं।
उस स्थापित अग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियों ( दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय ) की स्थापना तथा उनकी रक्षा का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है।
ये तीन अग्नियाँ त्रेताग्नि कहलाती हैं, जिसमें श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं।
भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर सीता जी के साथ पुष्पक विमान से वापस लौट रहे थे,
तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताया कि यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है,
जहाँ के त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धुएँ को सूँघकर मैं अपने को सभी पाप-तापों से मुक्त अनुभव कर रहा हूँ।
उपसंहार
कुछ आचार्यों ने उपरोक्त 16 संस्कारों के अतिरिक्त अन्त्येष्टि क्रिया को भी एक संस्कार माना है, जिसे पितृमेध, अन्त्यकर्म, अन्त्येष्टि आदि नामों से भी जाना जाता है।
इस संस्कार में मुख्यतः दाहक्रिया से लेकर द्वादशा तक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि वेदों में संस्कारों को यज्ञों के रूप में निरूपित किया गया है।
महर्षि अंगिरा का कथन है कि जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित प्रयोग करने पर चित्र में सुंदरता एवं वास्तविकता आ जाती है, ठीक उसी प्रकार चरित्र निर्माण भी विविध संस्कारों के द्वारा प्राप्त होता है।
आपके प्रश्न
जन्म से पहले के तीन संस्कार होते हैं, उनके नाम हैं, 1) गर्भाधान 2) पुंसवन 3) सीमन्तोन्नयन
संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारम्भ से ही कुछ मतभेद रहा है। गौतम स्मृति में 48 संस्कार बताये गए हैं।
महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार निर्दिष्ट किये हैं जबकि महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है।
जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होता है, उस क्रिया को संस्कार कहते हैं।
जब तक किसी पदार्थ का संस्कार (शुद्धिकरण) नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन ही रहता है।
जिस प्रकार खान से निकला हुआ सोना तपाने से ही शुद्ध होता है उसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की शास्त्रीय व्यवस्था दी है।
भारतीय संस्कृति में मुख्यतः सोलह (षोडश) संस्कार माने गये हैं।
शैशव संस्कारों की कुल संख्या छः (6) है। इनके नाम हैं, 1) जातकर्म 2) नामकरण 3) निष्क्रमण 4) अन्नप्राशन 5) चूड़ाकरण 6) कर्णवेध
महर्षि व्यास के द्वारा बताये गए 16 संस्कारों में से दो इसके अन्तर्गत आते हैं, जो गृहस्थ जीवन के लिये आवश्यक है। उनके नाम हैं – 1) विवाह 2) विवाहाग्नि परिग्रह