महालक्ष्मी स्तुति की रचना महर्षि अगस्त्य के द्वारा की गयी है। इस स्तुति के भक्तिपूर्वक पाठ से महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और दरिद्रता का नाश होता है। साथ ही साधकों के सभी प्रकार के दुःख-संताप दूर हो जाते हैं और उन्हें सर्वत्र विजय की प्राप्ति होती है।
॥ महालक्ष्मी स्तुति ॥
मातर्नमामि कमले कमलायताक्षि
श्रीविष्णुहृत्कमलवासिनि विश्वमातः ।
क्षीरोदजे कमलकोमलगर्भगौरि
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥1॥
अर्थ – कमल के समान विशाल नेत्रोंवाली माता कमले ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप भगवान विष्णु के हृदय कमल में निवास करनेवाली तथा सम्पूर्ण विश्व की जननी हैं। कमल के कोमल गर्भ के सदृश गौर वर्णवाली क्षीरसागर की पुत्री महालक्ष्मि ! आप अपनी शरण में आये हुए प्रणतजनों का पालन करनेवाली हैं। आप सदा मुझपर प्रसन्न हों ॥1॥
त्वं श्रीरूपेन्द्रसदने मदनैकमात –
र्ज्योत्स्नासि चन्द्रमसि चन्द्रमनोहरास्ये ।
सूर्ये प्रभासि च जगत्त्रितये प्रभासि
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥2॥
अर्थ – मदन ( प्रद्युम्न ) की एकमात्र जननी रुक्मिणी रुप धारिणी माता ! आप भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में ‘ श्री ‘ नाम से प्रसिद्ध हैं। चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली देवि ! आप ही चन्द्रमा में चाँदनी हैं, सूर्य में प्रभा हैं और तीनों लोकों में आप ही प्रभासित होती हैं। प्रणतजनों को आश्रय देनेवाली माता लक्ष्मि ! आप सदा मुझपर प्रसन्न हों ॥2॥
त्वं जातवेदसि सदा दहनात्मशक्ति –
र्वेधास्त्वया जगदिदं विविधं विदध्यात् ।
विश्वम्भरोऽपि बिभृयादखिलं भवत्या
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥3॥
अर्थ – आप ही अग्नि में दाहिका शक्ति हैं। ब्रह्माजी आपकी ही सहायता से विविध प्रकार के जगत की रचना करते हैं। सम्पूर्ण विश्व का भरण-पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी आपके ही भरोसे सबका पालन करते हैं। शरण में आकर चरण में मस्तक झुकाने वाले पुरुषों की निरन्तर रक्षा करने वाली माता महालक्ष्मि ! आप मुझपर प्रसन्न हों ॥3॥
त्वत्त्यक्तमेतदमले हरते हरोऽपि
त्वं पासि हंसि विदधासि परावरासि ।
ईड्यो बभूव हरिरप्यमले त्वदाप्त्या
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥4॥
अर्थ – निर्मल स्वरूप वाली देवि ! जिनको आपने त्याग दिया है, उन्हीं का भगवान रूद्र संहार करते हैं। वास्तव में आप ही जगत का पालन, संहार और सृष्टि करने वाली हैं। आप ही कार्य-कारण रूप जगत हैं। निर्मल स्वरूपा लक्ष्मि ! आपको प्राप्त करके ही भगवान श्रीहरि सबके पूज्य बन गये। माँ ! आप प्रणतजनों का सदैव पालन करने वाली हैं, मुझपर प्रसन्न हों ॥4॥
शूरः स एव स गुणी स बुधः स धन्यो
मान्यः स एव कुलशीलकलाकलापैः ।
एकः शुचिः स हि पुमान् सकलेऽपि लोके
यत्रापतेत्तव शुभे करुणाकटाक्षः ॥5॥
अर्थ – शुभे ! जिस पुरुष पर आपका करुणापूर्ण कटाक्षपात होता है, संसार में एक मात्र वही शूरवीर, गुणवान, विद्वान, धन्य, मान्य, कुलीन, शीलवान, अनेक कलाओं का ज्ञाता और परम पवित्र माना जाता है ॥5॥
यस्मिन्वसेः क्षणमहो पुरुषे गजेऽश्वे
स्त्रैणे तृणे सरसि देवकुले गृहेऽन्ने ।
रत्ने पतत्रिणि पशौ शयने धरायां
सश्रीकमेव सकले तदिहास्ति नान्यत् ॥6॥
अर्थ – देवि ! आप जिस किसी पुरुष, हाथी, घोड़ा, स्त्रैण, तृण, सरोवर, देवमंदिर, गृह, अन्न, रत्न, पशु-पक्षी, शय्या अथवा भूमि में क्षणभर भी निवास करती हैं, समस्त संसार में केवल वही शोभा सम्पन्न होता है, दूसरा नहीं ॥6॥
त्वत्स्पृष्टमेव सकलं शुचितां लभेत
त्वत्त्यक्तमेव सकलं त्वशुचीह लक्ष्मि ।
त्वन्नाम यत्र च सुमङ्गलमेव तत्र
श्रीविष्णुपत्नि कमले कमलालयेऽपि ॥7॥
अर्थ – हे श्रीविष्णुपत्नि ! हे कमले ! हे कमलालये ! हे माता लक्ष्मि ! आपने जिसका स्पर्श किया है, वह पवित्र हो जाता है और आपने जिसे त्याग दिया है, वही सब इस जगत में अपवित्र है। जहाँ आपका नाम है, वहीं उत्तम मंगल है ॥7॥
लक्ष्मीं श्रियं च कमलां कमलालयां च
पद्मां रमां नलिनयुग्मकरां च मां च ।
क्षीरोदजाममृतकुम्भकरामिरां च
विष्णुप्रियामिति सदा जपतां क्व दुःखम् ॥8॥
अर्थ – जो लक्ष्मी, श्री, कमला, कमलालया, पद्मा, रमा, नलिनयुग्मकरा ( दोनों हाथों में कमल धारण करनेवाली ), मा, क्षीरोदजा, अमृतकुम्भकरा ( हाथों में अमृत का कलश धारण करनेवाली ), इरा और विष्णुप्रिया – इन नामों का सदा जप करते हैं, उनके लिये कहीं दुःख नहीं है ॥8॥
ये पठिष्यन्ति च स्तोत्रं त्वद्भक्त्या मत्कृतं सदा ।
तेषां कदाचित् संतापो माऽस्तु माऽस्तु दरिद्रता ॥9॥
माऽस्तु चेष्टवियोगश्च माऽस्तु सम्पत्तिसंक्षयः ।
सर्वत्र विजयश्चाऽस्तु विच्छेदो माऽस्तु सन्ततेः ॥10॥
अर्थ – इस स्तुति से प्रसन्न हो देवी के द्वारा वर माँगने के लिये कहने पर अगस्त्य मुनि बोले – हे देवि ! मेरे द्वारा की गयी इस स्तुति का जो भक्तिपूर्वक पाठ करेंगे, उन्हें कभी संताप न हो और न कभी दरिद्रता हो, अपने इष्ट से कभी उनका वियोग न हो और न कभी धन का नाश ही हो। उन्हें सर्वत्र विजय प्राप्त हो और उनकी संतान का कभी उच्छेद न हो ॥9-10॥
एवमस्तु मुने सर्वं यत्त्वया परिभाषितम् ।
एतत् स्तोत्रस्य पठनं मम सांनिध्यकारणम् ॥11॥
अर्थ – श्रीलक्ष्मीजी बोलीं – हे मुने ! जैसा आपने कहा है, वैसा ही होगा। इस स्तोत्र का पाठ मेरी संनिधि प्राप्त करानेवाला है ॥11॥
॥ इस प्रकार स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में अगस्तिकृत महालक्ष्मी स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥
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