सूर्यवंश में बाहु नाम के एक राजा हुए, उनके पिता का नाम वृक था। भविष्य में इन्हीं राजा बाहु के पुत्र राजा सगर हुए, जिनके 60 हजार पुत्र थे। आइये विस्तार से जानते हैं पुराणवर्णित राजा सगर की कहानी।
बाहु बड़े धर्मपरायण राजा थे, वे अपनी प्रजा का पालन पुत्रों के समान करते थे। पापियों और द्रोहियों को उचित दंड देते थे जिससे समस्त प्रजा निर्भय होकर धर्मपूर्वक रहते थे।
उनके राज्य में अन्न वस्त्र की कोई कमी नहीं थी जिससे समस्त प्रजाजन वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे।
एक समय राजा बाहु के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे – ‘ पुरे पृथ्वी पर मेरे जैसा कोई राजा नहीं है। मेरे राज्य में हर ओर सुख शांति है।
मैंने अपने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। मुझे समस्त वेद और शास्त्रों का ज्ञान है। इस संसार में मुझसे बढ़कर दूसरा कौन है। ‘
जब मनुष्य स्वयं को सबसे अच्छा मानने लगता है तो उसे दूसरों में दोष दिखाई देने लगते हैं। जो दूसरों में दोष देखते हैं उनकी वाणी भी दूसरों के प्रति कठोर हो जाती है।
जिसका मन सदा दूसरों में दोष देखने में लगा रहता है और जो सदा कठोर भाषण किया करते हैं, उनके प्रियजन, पुत्र तथा भाई बन्धु भी शत्रु बन जाते हैं।
इसलिए जो मनुष्य मित्र, संतान, गृह, धन-धान्य आदि सबकी हानि देखना चाहता हो उसे ही यह काम करना चाहिए।
इस प्रकार अहंकार के बढ़ जाने के कारण राजा बाहु अत्यंत उदंड हो गए और परिणामस्वरूप उनके बहुत सारे शत्रु बन गए।
हैहय और तालजंघ कुल के क्षत्रियों से उनकी प्रबल शत्रुता हो गई और उनके साथ राजा बाहु का घोर युद्ध छिड़ गया।
युद्ध में राजा बाहु परास्त हो गए और दुखी होकर अपनी दोनों पत्नियों के साथ वन में चले गए और वहीं समय व्यतीत करने लगे।
दुःख और संताप से राजा बाहु का शरीर जर्जर हो गया और कुछ समय बाद वन में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए।
उस समय उनकी छोटी पत्नी गर्भवती थी पति के गुजर जाने से उन्हें बहुत दुःख हुआ और उन्होंने पति के साथ ही चिता में जल मरने का निश्चय किया।
उस स्थान से कुछ ही दूरी पर और्व मुनि का आश्रम था। और्व मुनि परम तेजस्वी ऋषि थे, उन्हें तीनों कालों का ज्ञान था।
जब उन्होंने राजा बाहु की उस पतिव्रता छोटी रानी को सती होते देखा तो उनको मना करते हुए कहा – ” हे देवी, तेरे गर्भ में शत्रुओं का नाश करने वाला चक्रवर्ती बालक है।
इसलिए तुम चिता पर चढ़ने का साहस मत करो, वैसे भी शास्त्रों में गर्भवती स्त्री के सती होने का निषेध है।
यद्यपि तुम स्वयं अपनी इक्षा से सती होना चाहती हो पर तुम्हें अपने गर्भ में पल रहे शिशु की हत्या करने का अधिकार नहीं है। अतः तुम्हें यह पाप नहीं करना चाहिए। “
मुनि के इस प्रकार कहने पर रानी उनकी बात मान गई और फिर दोनों रानियों ने मिलकर पति का विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया और ऋषि के कहने पर उन्हीं के आश्रम में रहने चली गयी।
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और्व मुनि के आश्रम में रहकर दोनों रानियां महर्षि के सेवा सत्कार में समय व्यतीत करने लगीं।
पर छोटी रानी अपने पूर्व के संस्कारों के कारण धर्म कर्म में विशेष रूचि लेतीं और और्व मुनि के सुन्दर प्रवचनों को अपने ह्रदय में धारण करके हमेशा परमेश्वर के ध्यान भजन में ही संलग्न रहती थी।
जिससे बड़ी रानी के मन में उसके प्रति ईर्ष्या होने लगी और एक दिन बड़ी रानी ने छोटी रानी को भोजन में जहर मिला कर दे दिया।
पर ईश्वर की कृपा से छोटी रानी पर उस जहर का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और नाही गर्भ में पल रहे शिशु पर।
समय आने पर छोटी रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। और्व मुनि ने गर (विष) के साथ उत्पन्न हुए उस बालक का नाम सगर रखा। माता ने बालक सगर का बड़े प्रेमपूर्वक पालन पोषण किया।
जब बालक सगर कुछ बड़ा हुआ तो और्व मुनि ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया और उसे शास्त्रों का अध्ययन कराया साथ ही अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा भी दी।
और्व मुनि से शिक्षा पाकर बालक सगर बलवान, बुद्दिमान और धर्मात्मा हो गए।
एक दिन सगर ने अपनी माता से पिता के बारे में जानना चाहा तब माता ने उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया की किस प्रकार सगर के पिता शत्रुओं से हारकर वन में आए और यहाँ और्व मुनि के आश्रम में सगर का जन्म हुआ।
सारी कथा जानकर सगर को भीषण क्रोध उपजा और उसने माता के सामने प्रतिज्ञा ली कि वह अपने पिता के शत्रुओं का नाश कर देगा और अपना खोया हुआ राज्य वापस लेगा।
तब माता से आज्ञा लेकर सगर और्व मुनि के पास पहुँचे और उनका आशीर्वाद लेकर वहां से प्रस्थान किया और अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के पास पहुँचे।
कुलगुरु वशिष्ठ से मिलकर उन्हें प्रणाम करके सगर ने उन्हें सब समाचार सुनाया।
महर्षि वशिष्ठ सगर को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें विभिन्न प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र प्रदान किए।
इस प्रकार सभी दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर सगर कुलगुरु वशिष्ठ से आज्ञा लेकर अपने पिता के शत्रुओं से युद्ध करने पहुँचे।
शूरवीर सगर ने बहुत ही कम समय में अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर दिया। तब शक, यवन तथा अन्य बहुत से राजा अपने प्राण बचाने वशिष्ठ मुनि के शरण में पहुँचे।
गुरु वसिष्ठ की बात मानकर सगर ने उन राजाओं को प्राणदान दे दिया। ये देखकर वशिष्ठ मुनि सगर पर बहुत प्रसन्न हुए और अन्य तपस्वी मुनिओं को साथ लेकर सगर का राज्याभिषेक किया।
तत्पश्चात राजा सगर और्व मुनि के आश्रम गए और उनकी आज्ञा लेकर अपनी दोनों माताओं को अपने साथ राजमहल ले आए और सुखपूर्वक राज्य करने लगे।
अद्भुत
धन्यवाद 🙏