मत्स्य पुराण में सत्यवान सावित्री की कथा का वर्णन है। सती सावित्री का नाम पतिव्रता स्त्रियों में सदा सम्माननीय है। जिन्होंने मृत्यु के पाश में पड़े हुए अपने पति को बंधन मुक्त कराया था।
आइये विस्तार से जानते हैं सत्यवान सावित्री की प्रेरणादायी कहानी जो सभी पापों को नष्ट करने वाली है।
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कथा
प्राचीन समय में मद्रदेश (वर्तमान सियालकोट) में शाकलवंशी अश्वपति नामक एक राजा थे।
उनके कोई पुत्र नहीं था। तब ब्राह्मणों के निर्देश पर वे पुत्र की कामना से सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली सावित्री (गायत्री) की आराधना करने लगे।
कुछ समय के बाद उनकी आराधना से प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने राजा को दर्शन दिया।
सावित्री देवी ने कहा – ” राजन ! तुम मेरे नित्य भक्त हो, अतः मैं तुम्हें कन्या प्रदान करूँगी। मेरी कृपा से तुम्हें सर्वांग सुंदरी कन्या प्राप्त होगी। “
यह कहकर वह देवी आकाश में बिजली की भाँति अदृश्य हो गयी। उस राजा की मालती नाम की पतिव्रता पत्नी थी। समय आने पर उसने सावित्री के समान रूपवाली एक कन्या को जन्म दिया।
तब राजा ने ब्राह्मणों से कहा – ” तप के द्वारा आवाहन किये जाने पर माता सावित्री ने इसे मुझे दिया है तथा यह सावित्री के समान रूपवाली है, अतः इसका नाम सावित्री होगा। “
तब उन ब्राह्मणों ने उस कन्या का नाम सावित्री रख दिया। समय बीतने पर जब सावित्री युवती हुई तब सावित्री को वर खोजने के लिये कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया।
इधर यह बात जब नारदजी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कन्या ने वर खोजने में बड़ी भारी भूल की है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा अवश्य है, परंतु वह अल्पायु है। एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जायेगी।
नारदजी की बात सुनकर राजा उदास हो गये। उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया – ” पुत्रि ! ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये तुम कोई और वर चुन लो। “
इस पर सावित्री बोली – ” तात ! आर्य कन्याएँ अपने पति का वरण एक ही बार करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करुँगी। “
सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये जहाँ अपना राज्य और नेत्रज्योति खो चुके राजा द्युमत्सेन अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे कुटिया बनाकर रहते थे।
उसी वन में विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया। वन में रहते हुए अत्यंत कष्ट पाकर भी सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही।
नारदजी के कथनानुसार पति के मरणकाल का समय पास आया तो धर्मपरायणा सावित्री ने ससुर से आज्ञा लेकर त्रिरात्र व्रत का अनुष्ठान किया।
चौथा दिन आने पर जब सत्यवान ने लकड़ी, फूल और फल लाने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान किया तब सावित्री भी सास-ससुर से आज्ञा लेकर दुखी मन से पति के साथ उस भयंकर जंगल में गयी।
नारदजी के वचनों का ध्यान करके मन में भीषण कष्ट रहने पर भी उसने अपने इस भय को पति के सामने उजागर नहीं होने दिया।
पति का मन बहलाने के लिए वह झूठ-मुठ उस वन के वृक्षों और पशु-पक्षियों के बारे में पूछताछ करती रही।
शूरवीर सत्यवान उस भयंकर वन में विशाल वृक्षों, पक्षियों एवं पशुओं के दल को दिखला-दिखला कर थकी हुई एवं कमल के समान विशाल नेत्रोंवाली राजकुमारी सावित्री को आश्वासन देता रहा।
इस प्रकार से कुछ समय बीतने पर सत्यवान ने कहा – ” सावित्री ! मैं फलों को एकत्र कर चूका और तुम फूलों को एकत्र कर चुकी, लेकिन अभी ईंधन के लिए लकड़ी का कोई प्रबंध नहीं हुआ, अतः तुम इस वट वृक्ष की छाया में बैठकर क्षणभर प्रतीक्षा करते हुए विश्राम करो। “
सावित्री बोली – ” कान्त ! जैसा आप कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगी, लेकिन आप मेरे आँखों के सामने से दूर न जाएँ, क्योंकि मैं इस घने जंगल में डर रही हूँ। “
सावित्री के ऐसा कहने पर सत्यवान उसके सामने ही कुछ दूरी पर लकड़ी काटने लगे।
सावित्री को पहला वरदान
लकड़ी काटते हुए सत्यवान के सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई, तब वे पीड़ा से व्याकुल होकर पत्नी के पास आकर बोले –
” सावित्री ! इस परिश्रम से मेरे सिर में बहुत पीड़ा हो रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं अंधकार में प्रविष्ट हो रहा हूँ। इस समय मैं तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ। “
सावित्री से ऐसा कहकर सत्यवान उसकी गोद में सिर रख कर सो गए। जब सत्यवान सो गए तब राजपुत्री सावित्री ने उस स्थान पर स्वयं धर्मराज को आए देखा, जो नीले कमल के समान श्यामवर्ण से सुशोभित और पीताम्बर धारण किये हुए थे।
उनके पीछे मृत्यु सहित काल भी था। धर्मराज ने उस स्थान पर पहुँच कर उस समय सत्यवान के शरीर से अंगूठे के परिमाण वाले पुरुष को पाश में बाँधकर अपने अधीन किया और उसे खींचकर शीघ्रतापूर्वक दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया।
पति को प्राणरहित देखकर सावित्री जाते हुए धर्मराज के पीछे-पीछे चली और काँपते हुए ह्रदय से अपने दोनों हाथ जोड़कर बोली –
” माता की भक्ति से इस लोक, पिता की भक्ति से मध्यम लोक और गुरु की भक्ति से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
जो इन तीनों का आदर करता है, उसने मानो सभी धर्मों का पालन कर लिया तथा जिसने इन तीनों का आदर नहीं किया उसके किये हुए समस्त पुण्यकार्य निष्फल हो जाते हैं।
पुरुष के सारे कर्म माता, पिता और गुरु इन्हीं तीनों में समाप्त हो जाते हैं। “
यमराज ने कहा – ” सावित्री ! तुम हमसे जिस कामना को पूर्ण कराने के लिए आ रही हो उस कामना को छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ। सचमुच संसार में माता, पिता और गुरु की सेवा से बढ़ कर कोई अन्य धर्म नहीं है।
तुम्हारा पति गुरुजनों की पूजा में निष्ठा रखने वाला है पर तुम्हारा इस प्रकार से मेरे पीछे आना मेरे काम में बाधा डाल रहा है, अतः तुम लौट जाओ। “
सावित्री बोली – ” स्त्रियों का पति ही देवता है, पति ही उसको शरण देने वाला है इसलिए साध्वी स्त्रियों को अपने पति का अनुगमन करना चाहिए।
पिता, भाई तथा पुत्र परिमित संपत्ति देने वाले हैं, किन्तु पति अपरिमित संपत्ति का दाता है। भला ऐसे पति की कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी।
सुरोत्तम ! आप मेरे पति को जहाँ ले जा रहे हैं वहीँ मुझे भी ले चलिए अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूँगी। “
यमराज ने कहा – ” पतिव्रते ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, अतः सत्यवान के प्राणों को छोड़ कर कोई भी वरदान मांग लो, देर मत करो। “
सावित्री बोली – ” धर्मज्ञ ! जो राज्य से च्युत हो गए हैं तथा जिनकी आँखों की ज्योति चली गयी है, ऐसे मेरे महात्मा ससुर को राज्य तथा नेत्रज्योति प्रदान कीजिये। “
यमराज ने कहा – ” भद्रे ! तुम्हारी यह सब अभिलाषा पूर्ण होगी। तुम बहुत दूर तक चली आयी हो, तुम्हारे मेरे पीछे चलने से मेरे काम में विघ्न पड़ेगा और तुम्हें भी थकावट होगी, अतः अब तुम लौट जाओ। “
सावित्री को दूसरा वरदान
सावित्री ने कहा – ” देवश्रेष्ठ ! सत्पुरुषों के साथ समागम होने पर कैसा परिश्रम ? और कैसा दुःख ? विष, अग्नि, सर्प तथा शस्त्र से लोगों को उतना भय नहीं होता जितना दुष्टों से होता है।
जिस प्रकार सत्पुरुष अपने प्राणों का विसर्जन करके भी परोपकार करते हैं, उसी प्रकार दुर्जन भी अपने प्राणों का परित्याग कर दूसरे को कष्ट देने में तत्पर रहते हैं।
यह जगत सत्पुरुषों द्वारा धारण किया जाता है तथा आप उन सत्पुरुषों के अग्रणी हैं, इसलिए देव ! आपके पीछे चलते हुए मुझे कुछ भी क्लेश नहीं है। “
यमराज बोले – ” विशालाक्षि ! तुम्हारे इन धर्मयुक्त वचनों से मैं प्रसन्न हूँ अतः सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त दूसरा वर मांग लो, देर न करो। “
सावित्री ने कहा – ” प्रभु ! मैं सौ सहोदर भाइयों की अभिलाषिणि हूँ। मेरे पिता पुत्रहीन हैं, अतः वे पुत्रलाभ से प्रसन्न हों। “
यह सुनकर यमराज ने सावित्री से कहा – ” सावित्री ! तुम जैसे आयी हो, वैसे ही लौट जाओ तथा अपने पति के अंतिम क्रिया की व्यवस्था करो।
अब यह दूसरे लोक में चला गया है, अतः तुम इसके पीछे नहीं चल सकती। चूँकि तुम पतिव्रता हो इसलिए दो घड़ी तक और मेरे साथ चल सकती हो।
भद्रे ! सत्यवान ने गुरुजनों की सेवा करके महान पुण्य अर्जित किया है, अतः मैं स्वयं इसे ले जा रहा हूँ।
सुन्दरि ! विद्वान पुरुष को माता, पिता और गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहना चाहिए और उनका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए।
मनुष्य के जन्म के समय माता और पिता जो कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता।
अतः मनुष्य को माता, पिता तथा गुरु का सर्वदा प्रिय कार्य करना चाहिए क्योंकि इन तीनों के संतुष्ट होने पर सभी तपस्याएँ संपन्न हो जाती हैं।
भद्रे ! तुम्हारे द्वारा कही हुई सभी बातें पूर्ण होंगी। तुम्हारा काम पूरा हो गया, अब तुम लौट जाओ। तुम्हारा इस प्रकार से मेरे पीछे आने से मेरे कार्य में विघ्न पड़ता है और तुम्हें भी कष्ट हो रहा है, इसीलिये मैं तुमसे ऐसा कह रहा हूँ। “
सावित्री को तीसरा वरदान
सावित्री ने कहा – ” देवश्रेष्ठ ! धर्मोपार्जन के कार्य में कैसी ग्लानि और कैसा कष्ट ?
देव ! ज्ञानी व्यक्ति को सर्वदा धर्मोपार्जन करना चाहिए क्योंकि उसका लाभ सभी लाभों से विशेष महत्वपूर्ण है।
प्राणी जहाँ कहीं भी जाए पीछे अकेले धर्म ही जाता है, मित्र एवं भाई-बंधू कोई साथ नहीं देता। इस संसार में और स्वर्ग में मनुष्य जितने भी प्रकार के उत्तम वस्तुओं और भोगों को प्राप्त करता है वह उनके पुण्यकर्मों का ही फल होता है।
उसकी प्राप्ति के उपाय हैं – यज्ञ, तप, दान, इन्द्रियनिग्रह, क्षमाशीलता, ब्रह्मचर्य, सत्य, तीर्थों की यात्रा, स्वाध्याय, सेवा, सत्संग, देवार्चन, गुरुजनों की सेवा तथा ब्राह्मणों की पूजा।
इसलिए विद्वान पुरुष को सदा धर्माचरण करना चाहिए, क्योंकि मृत्यु इसकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसने अपना कार्य पूरा किया अथवा नहीं।
प्राणी इस संसार में मृत्यु से सदैव भयभीत रहते हैं, पर पुण्यवान सत्पुरुष सर्वदा निर्भय होकर जीते हैं। “
यमराज बोले – ” विशालाक्षि ! तुम्हारी इन धर्मयुक्त बातों से मैं विशेष संतुष्ट हूँ, अतः तुम सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त अन्य वर मांग लो, देर मत करो। “
सावित्री ने कहा – ” देव ! मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ क्योंकि लोकों में पुत्रहीन की सद्गति नहीं होती। “
यमराज बोले – ” भद्रे ! अब तुम शेष अभीष्ट कामना को छोड़कर लौट जाओ, तुम्हारी यह याचना भी सफल होगी। “
सत्यवान की बंधन मुक्ति
सावित्री ने कहा – ” धर्म-अधर्म के विधान को भलीभांति जानने वाले देव ! आप ही जगत के स्वामी हैं। चूँकि आप कर्मों के अनुरूप प्रजाओं का नियमन करते हैं, इसलिए यम नाम से पुकारे जाते हैं।
प्रभो ! चूँकि आप धर्मपूर्वक सारी प्रजा को आनंदित करते हैं, इसलिए लोग आपको धर्मराज नाम से पुकारते हैं।
लोग मरने पर अपने सत्-असत् दोनों प्रकार के कर्मों को आगे रखकर आपके समीप जाते हैं, इसलिए आप मृत्यु कहलाते हैं।
आप सभी प्राणियों के क्षण, कला आदि से समय की गणना करते रहते हैं, इसलिए तत्वदर्शी लोग आपको काल नाम से पुकारते हैं।
देवताओं में श्रेष्ठ ! अपनी शरण में आयी हुई मुझ दुखिया की रक्षा कीजिये। इस राजपुत्र के माता-पिता भी दुखी हैं। “
यमराज बोले – ” धर्मज्ञे ! तुम्हारी स्तुति तथा भक्ति से संतुष्ट होकर मैंने तुम्हारे पति सत्यवान को मुक्त कर दिया है। अब तुम सफल मनोरथ होकर लौट जाओ।
यह सत्यवान तुम्हारे साथ पाँच सौ वर्षों तक राज्यसुख भोगकर अंतकाल में स्वर्गलोक जायेगा। सत्यवान तुम्हारे गर्भ से सौ पुत्रों को भी उत्पन्न करेगा, वे सब के सब देवताओं के समान तेजस्वी और क्षत्रिय राजा होंगे। “
इतना कहकर यमराज सत्यवान को छोड़कर काल तथा मृत्यु के साथ वहीँ अदृश्य हो गए।
द्युमत्सेन को राज्य की प्राप्ति
इसके बाद पतिव्रता सावित्री वहाँ से जिस मार्ग से गयी थी, उसी मार्ग से लौटकर उस स्थान पर आयी, जहाँ सत्यवान का मृत शरीर पड़ा हुआ था।
तब सावित्री पति के नजदीक जाकर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर पहले की तरह बैठ गयी। उस समय सूर्य अस्ताचल को जा रहे थे। थोड़ी देर में सत्यवान ने अपनी आँखें खोली और उठ कर बैठ गया।
सत्यवान ने सावित्री से कहा – ” वह पुरुष कहाँ चला गया जो मुझे खींचकर लिए जा रहा था। यहाँ सोते हुए मेरा पूरा दिन बीत गया।
तुमने भी पुरे दिन कुछ खाया नहीं और वहाँ आश्रम में मेरे माता-पिता को भी मेरे कारण दुःख भोगना पड़ा। सावित्री ! मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, चलो, जल्दी चलो। “
सावित्री बोली – ” स्वामी ! सूर्य तो अस्त हो गए। चलिए हम आश्रम को लौट चलें, मैं वहीँ सारी घटना विस्तार से आपको बताऊँगी। “
ऐसा कह कर सावित्री पति के साथ आश्रम पर पहुँची। उसी समय पत्नीसहित द्युमत्सेन को नेत्रज्योति प्राप्त हो गयी। वे दोनों अपने पुत्र और पुत्रवधु को वापस आया देख बहुत प्रसन्न हुए।
सावित्री और सत्यवान ने सपत्नीक क्षत्रियश्रेष्ठ राजा द्युमत्सेन को प्रणाम किया। पिता ने राजकुमार सत्यवान को गले लगाया।
उस समय आनंदित सावित्री ने जैसी घटना घटित हुई थी उसका वर्णन किया और उसी रात को अपने व्रत को भी समाप्त किया।
अगले दिन प्रातःकाल राजा की सारी प्रजा सेनासहित ढोल नगारों के साथ राजा को पुनः राज्य करने के लिए निमंत्रण देने आयी और यह सूचना दी कि –
” राजन ! नेत्रहीन होने के कारण जिस राजा ने आपके राज्य को छीन लिया था वह राजा मंत्रियों द्वारा मार डाला गया। अब आप ही राजा हैं। “
यह सुनकर राजा द्युमत्सेन सेना के साथ वहाँ गए और धर्मराज की कृपा से पुनः अपने राज्य को प्राप्त किये। सावित्री ने भी सौ भाइयों को प्राप्त किया।
इस प्रकार पतिव्रता सावित्री ने अपने पितृपक्ष और पतिपक्ष दोनों का उद्धार किया और मृत्यु के पाश में बंधे हुए अपने पति को मुक्त किया।
इसलिए मनुष्यों को सदा साध्वी स्त्रियों की देवताओं के समान पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उनकी कृपा से ये तीनों लोक स्थित हैं।
जो मनुष्य सत्यवान सावित्री की इस कथा को नित्य सुनता है, वह सभी प्रयोजनों में सफलता प्राप्त कर सुख का अनुभव करता है और कभी भी दुःख का भागी नहीं होता।
संबंधित प्रश्न
सत्यवान को क्या श्राप मिला था ?
सत्यवान को कोई भी शाप नहीं मिला था, वह अल्पायु था इसलिए नियत समय पर यमराज उसके प्राण लेने आ गये थे।
सत्यवान की पत्नी का क्या नाम था ?
सत्यवान की पत्नी का नाम सावित्री था जो मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री थीं।
सावित्री ने सत्यवान के प्राण कैसे बचाए ?
सावित्री की पतिभक्ति और दृढ़ता से प्रसन्न होकर यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से मुक्त कर दिया। सावित्री को यमराज से मिले वरदान से सत्यवान के प्राण बच गये और वे दीर्घायु हो गये।
सावित्री की माता कौन थी ?
सावित्री मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री थी उनकी माता का नाम मालती था।
सावित्री कौन थी उसका विवाह किससे हुआ था ?
सावित्री मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री थी उसका विवाह राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से हुआ था।
सावित्री ने यमराज से कौन कौन से वर मांगे ?
सावित्री ने यमराज से निम्न तीन वर माँगे –
1) मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य और नेत्रज्योति वापस मिले।
2) मेरे पुत्रहीन पिता को सौ पुत्र प्राप्त हों।
3) मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनूँ।
नारद मुनि ने सत्यवान के बारे में क्या बताया था ?
नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा अवश्य है, परंतु वह अल्पायु है। एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जायेगी।
सावित्री के पिता को दुःख क्यों हुआ ?
सावित्री ने सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया था। यह जानकर नारद मुनि सावित्री के पिता राजा अश्वपति के पास पहुँचे और उनको सत्यवान के अल्पायु होने की बात बताई यह सुनकर सावित्री के पिता को अत्यन्त दुःख हुआ।