अपने पति की लम्बी आयु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए विवाहित स्त्रियाँ प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास में वट सावित्री व्रत का अनुष्ठान करती हैं।
उत्तर भारत में इस व्रत को ज्येष्ठ अमावस्या के दिन जबकि दक्षिण के प्रदेशों में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को मनाया जाता है। अमावस्या के दिन मनाये जाने वाले व्रत को वट सावित्री अमावसी और पूर्णिमा के दिन मनाये जाने वाले व्रत को वट सावित्री पूर्णिमा कहा जाता है।
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वट सावित्री व्रत कब है ?
वट सावित्री अमावस्या व्रत 2022 / Vat Amavasya Vrat 2022 Date – 30 May 2022
तिथि – ज्येष्ठ अमावस्या
वट सावित्री पूर्णिमा व्रत 2022 / Vat Purnima Vrat 2022 Date – 14 June 2022
तिथि – ज्येष्ठ पूर्णिमा
वट सावित्री व्रत का महत्व
वट सावित्री व्रत में विशेष रूप से वट वृक्ष का पूजन किया जाता है। वट देववृक्ष है। वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन विष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं।
देवी सावित्री भी वट वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। इसी अक्षयवट के पत्ते पर प्रलय के अंतिम चरण में भगवान श्रीकृष्ण ने बालरूप में मार्कण्डेय ऋषि को प्रथम दर्शन दिया था।
प्रयागराज में गंगा के तट पर वेणीमाधव के निकट अक्षयवट प्रतिष्ठित है। भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने संगम स्थित इस अक्षयवट को तीर्थराज का छत्र कहा है।
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥
रामचरितमानस २ | १०५ | ७
इसी प्रकार तीर्थों में पंचवटी का भी विशेष महत्व है। पाँच वटों से युक्त स्थान को पंचवटी कहा गया है। कुम्भज मुनि के परामर्श से भगवान श्रीराम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनवास काल में यहाँ निवास किया था।
हानिकारक गैसों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वट वृक्ष का विशेष महत्व है। वट वृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से सभी परिचित हैं।
जैसे वट वृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है, उसी प्रकार दीर्घ आयु, अक्षय सौभाग्य तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिये वट वृक्ष की आराधना की जाती है।
इसी वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को पुनः जीवित किया था। तब से यह व्रत वट सावित्री के नाम से किया जाता है।
पूजा विधि
ज्येष्ठ मास के व्रतों में वट सावित्री व्रत एक प्रभावी व्रत है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। महिलाएँ अपने अखण्ड सौभाग्य एवं कल्याण के लिये यह व्रत करती हैं।
सौभाग्यवती महिलाएँ श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों का उपवास रखती हैं। त्रयोदशी के दिन वट वृक्ष के नीचे व्रत का इस प्रकार संकल्प लेना चाहिये —
‘ मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये। ‘
इस प्रकार संकल्प कर यदि तीन दिन उपवास करने की सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशी को रात्रि भोजन, चतुर्दशी को अयाचित तथा अमावस्या को उपवास करके प्रतिपदा को पारण करना चाहिये।
अमावस्या को एक बाँस की टोकरी में सप्तधान्य के ऊपर ब्रह्मा और ब्रह्मसावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर वट के समीप यथाविधि पूजन करना चाहिये। साथ ही यम का भी पूजन करना चाहिये।
पूजन के अनन्तर स्त्रियाँ वट की पूजा करती हैं तथा उसके मूल को जल से सींचती हैं। वट की परिक्रमा करते समय एक सौ आठ बार या यथाशक्ति सूत लपेटा जाता है।
‘ नमो वैवस्वताय ‘ इस मन्त्र से वट वृक्ष की प्रदक्षिणा करनी चाहिये।
‘ अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते। ‘ इस मन्त्र से सावित्री को अर्घ्य देना चाहिये।
इसके बाद वट वृक्ष का सिंचन करते हुए निम्न मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिये —
वट सिञ्चामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा।
चने पर रूपया रख कर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है। सौभाग्य पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है।
सिन्दूर, दर्पण, मौली, काजल, मेहँदी, चूड़ी, माथे की बिन्दी, साड़ी, आभूषण इत्यादि वस्तुएँ एक बाँस की टोकरी में रख कर दी जाती हैं, यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है।
कुछ महिलाएँ केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं। देश और काल के अनुसार वट सावित्री व्रत के अनेक रूप हैं। इस व्रत में व्रती सावित्री सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करती हैं।
वट सावित्री व्रत कथा
एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के महान प्रतापी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनके कोई संतान न थी।
पण्डितों के कथनानुसार राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। उसी के प्रताप से कुछ समय बाद उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।
समय बीतता गया। कन्या बड़ी होने लगी। जब सावित्री को वर खोजने के लिये कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया।
इधर यह बात जब नारदजी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कन्या ने वर खोजने में बड़ी भारी भूल की है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा अवश्य है, परंतु वह अल्पायु है। एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जायेगी।
नारदजी की बात सुनकर राजा उदास हो गये। उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया – ” पुत्रि ! ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये तुम कोई और वर चुन लो। ”
इस पर सावित्री बोली – ” तात ! आर्य कन्याएँ अपने पति का वरण एक ही बार करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करुँगी। “
सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये जहाँ राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे द्युमत्सेन रहते थे।
विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया। वन में रहते हुए सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही।
नारदजी के कथनानुसार पति के मरणकाल का समय पास आया तो वह उपवास करने लगी।
नारदजी ने जो पति की मृत्यु का दिन बतलाया था, उस दिन जब सत्यवान कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिये वन में जाने को तैयार हुआ, तब सावित्री भी अपने सास-ससुर से आज्ञा लेकर उसके साथ वन को चली गयी।
वन में सत्यवान ज्योंही पेड़ पर चढ़ने लगा उसके सिर में असह्य पीड़ा होने लगी। वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया।
थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिये यमराज खड़े हैं। यमराज सत्यवान के अंगूठे के परिमाण वाले जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी।
सावित्री को आते देख यमराज ने कहा – ” हे पतिपरायणे ! जहाँ तक मनुष्य मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम वापस लौट जाओ। “
यह सुनकर सावित्री बोली – ” जहाँ तक मेरे पति जायेंगे, वहाँ तक मुझे जाना चाहिये। यही सनातन सत्य है। “
यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर माँगने को कहा। सावित्री ने कहा – ” मेरे सास-ससुर अन्धे हैं, उन्हें नेत्र ज्योति प्रदान करें। “
यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज ने उससे पुनः वर माँगने को कहा।
सावित्री ने वर माँगा – ” मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाये। “
यमराज ने ‘तथास्तु’ कह कर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही। सावित्री की पति भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज अत्यन्त द्रवीभूत हो गये।
उन्होंने सावित्री से एक और वर माँगने के लिये कहा। तब सावित्री ने यह वर माँगा कि ‘ मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ। कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें। ‘
सावित्री की पति भक्ति से प्रसन्न हो इस अन्तिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से मुक्त कर दिया और वे अदृश्य हो गये।
सावित्री अब उसी वट वृक्ष के पास आयी। वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीवन का संचार हुआ और वह उठ कर बैठ गया।
सत्यवान के माता-पिता की आँखें ठीक हो गयीं और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया। इससे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति सारे देश में फैल गयी।
इस प्रकार यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने पर तथा पति भक्ति रखने पर महिलाओं के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियाँ दूर होंगी। प्रत्येक सौभाग्यवती नारी को वट सावित्री का व्रत रखकर यह कथा सुननी चाहिये।
संबंधित प्रश्न
वट सावित्री व्रत करने से क्या होता है ?
अपने पति की लम्बी आयु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए विवाहित स्त्रियाँ प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास में वट सावित्री व्रत का अनुष्ठान करती हैं।
वट सावित्री पर्व क्यों मनाया जाता है ?
वट वृक्ष के नीचे ही सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को पुनः जीवित किया था। तब से यह पर्व वट सावित्री के नाम से मनाया जाता है।
वट सावित्री में किसकी पूजा होती है ?
वट सावित्री में विशेष रूप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है। साथ ही ब्रह्मा, ब्रह्मसावित्री, सत्यवान, सावित्री एवं यम का भी पूजन होता है।